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________________ नेवालोंने क्या अपने उपदेशका जरा भी रंग अपने हृदयुमें लगने . दिया है । मो कुछ अपने मुंहसे कहते है उसका खुद पालन नहीं करते हैं और फिर उसके द्वारा संसारका कल्याण करने निकले यह कैसे बन सकता है। जिनको अपने परिपेशके कारणस फरजीपात योर देना प्राप्त हुना है उनके लिये यह प्रवृति यंत्रवत् हो गई है इसमे श्रोतृपर ले पोधा जो परावर्त। ता है, वह 'भी असरहीन और मेव ज्यफ सहश क्षणस्थायी होता है,। इसक सिवाय जिसके तुम कुछ न्यूनाधिक आहे. प्राट हुना करना है वे अपने निधाको आधारमद्ध करनेफे लिये थे और साहम नहीं करते और पई नेके मौ को ग्मेंसे थाईल पाल भरे वाद थक जाते हैं और जो गो पाले भरते हैं इसका इत- आधक मारते हैं कि उनके अंदर अनुभवका सयं मोलह कला माहत 'प्रकाशित हो निकला है को उमका प्रकाश अपने पूर्व और स ज्ञान भाइयोंको देने के लिये कामर बांधकर बाहिर निकलत। उस समय उनके अंदर इतना आवेश पैदा होता है कि जिनके. दाग उनके मनमें यह विचार होता है. कि आकाश पातालको एक कर हूँ। के खाने पीनेको भी अपनी मूर्खाईक वे भानमें भूल जाते हैं और ताजियेके दिनों में फिरते जनूनी मुसलमानोंके सदृश अपनी पत्ताको फहराते हैं और ढोलकीये धनाते २ ने फिरते रहते हैं। वे यही खयाल करते हैं कि मेरी देवी सत्ताल रंग सारे. विश्वंपर घड़ीके छठे भागमें बैठ जायगा और जगत् मेरे निश्चयका अनुचरण करनेवाला बन जायगा । अक्सर तो. वे यह भी मान लेते हैं कि यह आवेग उन्हें परमेश्वर अथवा इससे उत्तरोत्तर किसी देवी सत्ता
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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