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________________ (२७) दिन निर्गमन करते थे तो भी वे उनके कुछ इजा नहीं करे एकते थे । इस विश्वकी सनातन योजना ऐसी घटित हो चुकी है कि प्रेमीमें प्रेमका संचार होजाता है प्रेमके बदले में कोई धिक्कार नहीं दे सकता है । सिर्फ विकट कसौटीमेंसे निकलनेके लिये जितनी चाहिये उतनी मनुष्यों में घटित क्षमा और साहसकी कमी होती है । जो एक प्रसङ्ग पर एक मनुष्य द्वारा बन सकता था वह सर्व प्रसह्नों पर सबसे बन सकता है । Exception proves the rule अपवाद ही मूल नियमको पूरा करता है । I एक दिन प्रभु गंगा नदीको पार करनेके लिये पथिकोंके साथ नावमें बैठे । समुद्र के समान जलभारसे छलकती सरिताके बीचमें जब नाव आया; तब प्रभुके पूर्व भवका एक बैरी आत्मा जो उस समय सुदृष्ट देव था उसको अपना पुराना वैर याद आया । कर्मके महा नियमकी मर्यादामें बड़े सेबड़े मनुष्य बंधे हुए हैं । वह सुदृष्ठदेव पूर्वकेभवमें एक सिंह था और वर्द्धमान प्रभुने उस सिंहको मात्र क्रीड़ाके हेतु मारडाला था । कोई भी हेतु अथवा कोप कारण बिना नहीं होता है सिर्फ खेलके लिये दूसरोंके प्राण लेनेमें निर्ध्वसपन है और इससे जो दूसरोंकी अवज्ञा होती है उसका बदला कर्मफलदात्री सत्ता बहुत सख्ताईसे लेती है । त्रिष्टष्टको जितना जीनेका हक था, उतना ही उस सिंहको था । कर्मकी सत्ताने जो आयुप्यका प्रमाण सिंहके लिये मुकरर किया था उसको बीचमेंसे ही काट देनेसे त्रिष्टष्टने प्रकृतिकी सीधी गतिमें जो निर्हेतुक कोलाहल किया था उसका चदला समयका परिपाक होने पर त्रिष्टष्टको सहना ही चाहिये । मनुप्यका कर्तव्य उससे नीच कोटिके जीवोंका रक्षण करनेका है । उसका
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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