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________________ ( २५) पूर्वको स्मृतिमें ले ओर जो भूल हो चुकी है उसको सुधार और कल्याणके मार्गकी ओर प्रवृत्त हो" ये शब्द प्रभुके मुखसे ज्योंही निकले ही थे कि उसको पूर्वभवकी स्मृति हो गई । पहिले किसी भवमें वह एक तपस्वी मुनि था और इसने मुनिपनके योग्य कार्य किये थे अतएव इसके पापकी आलोचनाकी स्मृति देनेके लिये एक साधु आया वह उसको मारनेको लपका और बीचमें ही एक स्तंभसे टकर खाकर मर गया । तप और क्रोध अस्सर जुड़े हुए मालूम होते हैं और इसको अपने काबूमें न रखनेवालेकी केसी अधोगति होती है हमारे लिये यह एक सुबोधमय उदाहरण है। पूर्वके क्रोध बलसे वह इस भवमें सांपके रूपमें पैदा हुआ था । भावान्तरमें शुभाशुभ अवतारका निर्णायक हेतु क्या है ? वह भी इस परसे स्पष्ट समझा जा सकता है। यदि प्रकृतिका वर्तन आत्मामें बलशाली हो और जिस देहमें यह अमल आ सके वहां ही जीव उत्पन्न होता है। कामी मनुष्य चिड़िया, कबूतर, डक्कर अथवा इससे भी नीचकोटिके जीवोंमें जहां कि यह वासना अतिशय अमलमें आ सके वहां ही जन्म लेते हैं । क्रोधी जीवको अपने वासनाकी तृप्तिके अर्थ सर्प,वृश्चिक, व्याघ्र आदियोनियोंमें जन्म लेना पड़ता है। यदि प्रभुने चंड कौशिक सर्पके क्रोधके सामने अपना सामर्थ्य बतानेका प्रयत्न किया होता तो यह हो सकता था, कारण कि प्रभु सामर्थ्यको वतानेके लिये समर्थ थे। प्रभुने मात्र एक अंगुष्ठेके दबाबसे मेरु गिरीको चलायमान किया था वही शक्ति चंडकौशिक जैसे महान सोकी भस्मीभूत करनेको समर्थ थी। उनके विलास मानसे वह सर्प भस्मीभूत हो सकता था। परन्तु प्रभु उस
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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