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________________ ( १७ ) # अपने अवधिज्ञान द्वारा प्रभुकी इस संकटमय दशाको प्रत्यक्ष देख, दौड़ता हुआ इन्द्र भी इस घटना स्थलपर आ उपस्थित हुआ और उस गोवालेको समझाया "मूह यह तो महामुनि हैं । तेरे बैलों की इन्हें क्या आवश्यक्ता पड़ी है ? इस अवस्थाके लिये अपनी विपुल राजलक्ष्मीको भी इन्होंने छोड़ दिया । " इन्द्रके ऐसे निष्ट वचन सुनकर गोवाला शान्त हो अपने घर चल दिया । उसके जाने पश्चात् इन्द्रने भगवान से प्रार्थना की कि हे नाथ ! अभी बारह वर्ष पर्यन्त आपको सर्व उपसर्ग ही उपसर्ग होनेवाले हैं अस्तु आप कृपा कर आज्ञा दें कि यह दास उन्हें निवारण करनेके लिये निरन्तर आपके साथ रहे। भगवानने समाधि पाकर इन्द्रकी प्रार्थनाका जो उत्तर दिया वह उनकी सदमस्तावस्थाकी अजुन ज्ञानमयताकी पूरी २ साक्षी देता है । कर्मके अटल सिद्धान्तको हस्तामलकवत् समझनेवाले प्रभुने उत्तर दिया कि हे इन्द्र ? तीर्थकर पर सहायकी अपेक्षा कभी नहीं रखते । अर्हन्तोंको दूसरोंकी सहायतासे कभी केवलज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा न आज तक कभी हुआ है और न कभी होनेवाला है। आत्मा स्वशक्तिसे ही केवलज्ञान प्राप्त करता है और फिर मोक्षमें जाता है । स्वार्थ के लिये महापुरुष अपनी लब्धियों अथवा सिद्धियोंका कभी प्रयोग नहीं करते । क्योंकि निकाचित कर्मोंको क्षय करने में वे कुछ भी उपयोगी नहीं होतीं । इसी प्रकार वे दैवी अथवा मानुषी कोई भी सत्ताका उपयोग करनेसे दूर रहते हैं । जिनका देहाभिमान सर्व प्रकार से निवृत्त हो गया है और जिनके लिये देह सम्बन्धी शुभाशुभ परिणामकी धाराका भी निरोध हो गया है
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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