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________________ [१०] ८८ 4 · चार पालन करते थे | ऐसे उत्कृष्ट ज्ञानी होनेपर भी आचारका त्याग उन्होंने गृहस्थावास में नहीं किया था । जब चाहे तब ऐसा कर सकते हैं इस निर्बल विचारका प्रस्फुटन भी उनके हृदय में नहीं हुआ था " । प्रसंग आनेपर करेंगे ऐसी भावना केवल कायर पुरुषोंके हृदयमें ही हुआ करती है। वीर पुत्र एक क्षणभर भी कार्य करनेमें विलम्ब नहीं करते। भाईकी प्रार्थनाको मान्य रखनेके लिये प्रभुने दीक्षा ग्रहण करनेका विचार और दो वर्षक लिये स्थगित कर दिया । परन्तु भावसे वे एक रोममें भी... अडीक्षित नहीं थे । गृहस्थ पर्यायी जो स्थिति सर्जन की थी, केवल उसहीको उदासीन भावसे बिना कर्म आश्रव किये वर्तन करते थे। ज्ञानीजनों को दोनों प्रकारके शाता और अज्ञाता वैदनीयमें वेदनपना ही मालुम होता है । उन्हें एक्के प्रति राग दूसरेके प्रति द्वेष नहीं होता । शारीरिक दुःख और सुख चे दोनों ही स्थितियों उन्हें समान दुःखप्रद मालूम पड़ती हैं क्योंकि दोनों हीमें आत्माको मुझानेका तथा उसे अपने स्वाभाविक स्थानसे गिरादेनेकी शक्ति ममान होती है । जो कुछ आत्माको आवृत करता है वह उनके मनको एक समान हानिकर जान पड़ता है। वे भावकी प्रबलताके तारतम्य अनुसार ही मुखकी हिम्मत अधिक और दुःख भार रूप मालूम होता है । परन्तु जिनका यह भाव नाश हो चुका है उनके लिये ये दोनों ही शारीरिक क्रियाएं आत्मा पर समान दवाव डालनेवालीं मालूम होती हैं । इसलिये प्रमु भाईकी याचनाको सफल महीने पर्यन्त और गृहस्थावासमें रहे। इसके करनेके लिये चारह बाद उनका दीक्षा 4
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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