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________________ [१३] " क्रियाका निषेध था । सामाजिक सन्मान उनके लिये विल्कुल नहीं था ।. जिस समाज में वे बनते थे उसमें उनकी तरफसे तिरस्कार और धिक्कार उत्तरोत्तर प्राप्त होने पर वे कुछ परिवर्तन के लिये आतुर - तसे राह देखते थे। ज्यों २ उनकी संख्या बढ़ने लगी। उपयोगी हुन्नर उद्योगमें वे प्रविष्ट होते गये, जमीन और गांवोंके मालिक बनते गये और अपना प्रभाव और मत्ता विस्तारित करने लगे । त्यों २ ऐसी द्वेष युक्त ज्ञाति भिन्नता उनको असह्य मालूम होती गई । इमतरह समाज वज्र तुल्य खोखेमें गोते खा रहा था । शूद्र सभ्यता और उद्योगमें आगे बढ़ते जाते थे और समाज में सम्यके लायके थे परन्तु उस समयका समाजिक, धार्मिके और कायदा सम् मी साहित्य उनके प्रति अवम और अन्याय ही बर्त रहा था । उन्नतिके इन अवरोधक कारणोंको दूर करनेके लिये एक प्रबल शक्तिमान वीर आत्मा के प्रार्दुभावकी जरूरत थी । बहुत समयसे एकत्रित मेलेके ढेरको झाड़े बिना समाज जरा भी आगे नहीं बढ़ सकता था । जीवनके आर्थिक अशोको मूर्च्छावस्था मेंसे वापिस चेतन करने के लिये एक जीवनप्रद अमीह प्रवाहकी आवश्यक्ता थी उस समय जीवन व्यवहार विलकुल प्राकृत कोटीका होगया था और लोगोके हृदयवल ठंडे होगये थे अतएव पारमार्थिक वेग शिथिल होचुका था । क्रिया रूढ़ी और अर्थहीन मंतव्योके प्राबल्यसे सामाजिक जीवन में एकमार्गीयत्व व्याप्त होगया था । लोग हृदयकी मुर्झाई हुई उच्च वृत्तियोको पुनः प्रफुल्लित करनेके लिये वृष्टीकी राह आतुरतापूर्वक देखी जाती थी। धर्मभावनाके नाशके साथ प्रजाजीवनकी समस्त भावनाओंको आघात पहुंचा था। इन सब
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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