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________________ [८ ] अतिशयको सूचित करते हैं। अपने पुण्यवलका अभिमान रखनेवालेको समझना चाहिये कि यह सारा संसार तुम्हारे सुखके अर्थ नहीं बडा गया है अथवा तुम्हारे पुण्यवलमेंसे नहीं प्रकट हुआ है। हमारे सुखानुभवका मुख्य अंगरूप समाज.प्रति तिरस्कार वृत्ति ही आत्माकी अधम दशाका ही प्रकार है हमारे मालिकीकी चीजको हमारे सिवाय दूसरे किसीको भोगनेका हक नहीं है और इसका नियम राजकी सत्ताने मात्र व्यवहारमें अव्यवस्था न होने पावे इसके लिये ही घड़ा है। यह लौकिक नियम, विश्वका राज्यतंत्र चलानेवाली दिव्य शक्तिके लिये जरा भी बंधनकर्ता नहीं है। सहुलीयतके लिये बनाये हुए नियम आदि प्रकृतिके महा राज्यमें प्रवर्तित नियमोंको प्रतिनिधीरूपमें मान लेनेकी भूल वुद्धिमान नहीं करते हैं। हमारे स्वामीत्वकी वस्तुपर दूसरे आक्रमण न करे इसके लिये नियम घढ़ने में लौकिक सत्ताका हेतु लोगोकी स्वार्थवृतिको मर्यादामें रखनेका ही है, परन्तु ईश्वर के महाराज्यमें ऐसे स्वार्थोके लिये अंधेरा नहीं है अतएव उसमें प्रवेश करनेकी इच्छावालेको इस खार्थवृत्तिको त्याग देना चाहिये कि अपनी वस्तुके उपभोगका सम्पूर्ण हक अपना ही है और उसमें दूसरेका कुछ नहीं है। हमारी वस्तुका मालिकी हक हमारे सिवाय दूसरेका कुछ नहीं है जो ये भावनाहमारे अंदर घर करके बैठी हुई है और यदि ऐसा प्रभुके घरका कायदा होता तो महावीर और बुद्ध आदि ईश्वर कोटीके पुरुष उस नियमका उल्लंघन कभी नहीं करते परन्तु जब उन्होंने अपना मालिकी हक दुनियाको बाँट देनेमें ही अपना सच्चा हित माना तब उनको आदर्श रूपमें मान
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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