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________________ * श्री लँबेच समाजका इतिहास - ४७७ मूडविद्रीमें सार्वभौमके हमारा निमन्त्रण किया भोजन किये जैन धर्मी है तथा जैन ब्राह्मण उपाध्याय लोगोंके पांच सौ के करीब घर है तथा नयनार क्षत्रियोंके सैकड़ों घर हैं ये सव जैन है। ___ अब लम्वेचू समाजमें संस्कृत विद्यामें सन्तान-दरसन्तान में कोई भी संस्कृत विद्या प्राप्तकर हमारी आशा पूरी करे यही प्रार्थना है। अस्त्येषाननुगाचनाद्यभवतां प्रान्तेमुणग्राहिणां देयं संस्कृतमातृवर्धनविधौ चित्तं सदा प्रेमतः यद्वचसाच कार्यकरणेनामोतिदुःखंसुधीः कोनामेह तदीयकोमलहित प्रालम्बिशिक्षांत्यजेत् और विद्यायें अपने-२ देशकी भाषाय हैं। उदर भरी हैं विद्यायें नहीं । एक अरहंतदेवसे निकली निरक्षरी दिव्यध्वनि उसका रहस्यपायगणधर ( गणपति ) देव ने संस्कृत प्राकृत रूप अक्षर रचना करी । यह देववाणी है, इसीका साहित्य इंगलिश, उर्दू अरबी आदि भाषामें गया सवकी जननी संस्कृत माता है । इत्यलं पल्लवितेन ।
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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