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________________ ४३८ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास : मिलती थी यह सब दुनीतिका फल है। जैसी नियति, वैसी वरकति और जो ब्लेक करेगा वह झूठ बोले बिना रहेगा ही नहीं। ____ अब स्वदारसन्तोष व्रत गृहस्थका कहा जो पुरुष तो अपनी स्त्रीके सिवाय परस्त्री वेश्याके गमन न करे और स्त्रियाँ पतिव्रत-धर्म धारणकर सन्तोष करे, तो सन्तान हृष्ट-पुष्ट और धार्मिक होवे, उसके घातक तलाक बिल, विधवा-विवाह पास करा लिये। अब शूकर-कूकरकी तरह अनेक सन्तान होने लगी, तो अब कहते हैं सन्तान पैदा कम करो। जा ऋषि-मार्ग था उसको नष्ट कर दिया। अब सुख कहाँ हजार हाथ नहीं। निरक्षरान् वीक्ष्य धनाधिनाथान विद्यान हेया विवुधैः कदाचित् । धनादियुक्ताः कुलटाः निरीक्ष्य कुलाङ्गना किं कुलटाभवन्ति । निरक्षर अनपढ़ धनाड्य लोगोंको देखकर पंडितोंको विद्या पढ़ना नहीं छोड़ देना चाहिये । क्या वस्त्राभूषण आदिसे सुसजित व्यभिचारिणी स्त्रियोंको देखकर क्या कुल स्त्रियें व्यभिचारिणी हो जाती है। कदापि नहीं जिसके अन्तरं गशील रूपी भूषण है उण्हें वाह्य भौतिक उन्नतिसे क्या
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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