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________________ ३०४ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * श्रीकृष्णजीने उधर एक विरक्त करनेके लिये षड्यंत्र रचा, कुछ पशु बन्धनमें डाल दिये, जब बारात तोरणमें पहुंची, उन पशुओंका बन्धन देख दयाक संचारसेद्र वीभृत हो, विरक्त हो, सब मोर मुकुट पशुओंका शब्द प्राकार सुन कङ्कणादि डालकर गिरनार पर्वत पर तपश्चरण करनेके लिये चले गये। श्रावण मुदी गुजराती जो यहाँ चले आषाढ़ सुदी ४ होती है। जैनेश्वरी (दिगम्बरी ) दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे। यह बात राजमती सुन पर्वत पर उनके पास पहुंची, बहुत विनती करी, पर विरक्त पुरुषको क्यों स्वीकार हो । अन्तमें वह भी विरक्त होकर आर्थिक व्रत धारण कर तरश्चरण करने लगी। अब भी गिरनार पर्वत पर गुफामें राजमतीकी भी मूनिहै । और श्रीनेमिनाथ भगवान्ने उग्र २ तपश्वरण कर शुक्ल ध्यानक बलसे ज्ञाना वरणादि अष्टकमी से ४ कर्मज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अन्तराय इन चारोंको नष्ठ कर अर्द्धन्तेनारयो यस्मात् अर्द्ध नारीश्वरोस्यतः ) आधे ४ घाति या कर्मज्ञानवरणादि जो ज्ञान दर्शन वीर्य सुखको धातते थे। उनका नाशकर अरहंत पद पायो अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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