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________________ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * २७१ की बत्ती पहिले नहीं थी अब है। ये कृत्रिम हैं और वे अकृत्रिम दीपाङ्ग प्राकृतिक होते थे। जैसे-एक चावल धान बोने से होते हैं और एक अकृत्रिम बिना बोये शाठी क चावल धान अपने-आप होते हैं, जिनका दाना कुछ ललाई लिये होता है। उसी प्रकार भोग-भूमि में कल्पवृक्ष होते हैं । स्त्री-पुरुष जोड़ा ही उत्पन्न होते हैं। दूसरे काल के बाद तीसरा काल होता है सुखमा दुखमा। पहले कल्प-वृक्ष रहे और अन्त में कल्प-वृक्ष नष्ट हो जाते। इस काल को अन्य मतावलम्बी द्वापर कहते हैं ( द्वाभ्यां अपरः ) सतयुग को दो काल पीछे दो से तोसरा काल। इसमें १४ कुल कर होते हैं जो अपनेअपने समय में एक-एक नवीन बात चलाते हैं। इनको वैष्णव १४ मनु कहते हैं। १४ चौदहमें कुल कर श्री नाभिराजा भये। उनके प्रथम पुत्र तीर्थङ्कर श्री ऋषभ देव आदिनाथ भगवान भये इनको वैष्णवों ने भागवत में पाँचवां ऋषभावतार माना है पांचवें स्कन्धमें और भोगभूमि होना महाभारतमें भी लिखा है। इन ऋषभदेव भगवानने प्रजाको इक्षु रसका संग्रह कराया इससे ऋषभदेवको इक्ष्वाकु
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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