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________________ २३० * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * (कण्ह) का भो चोहानवंश हो था, वणिकवंश नहीं था। इस इतिहास में अगाड़ी मालूम हो जायगा ।* ४ रायवदिय और चन्दवाड नगर ऊपर कह आये हैं कि कवि लक्ष्मण रायवद्दिय नगरके निवासी थ, जहाँ चौहान वंशी राजा का राज्य था। सामान्य खोज से मालूम हुआ है कि आगरा फोट से बांदीकुई जानेवाली रेलवे पर एक रायभा ( Raibha ) *इसमें श्रीमान प्रोफेसर साहब ने वणिपट्टकिय का अर्थ वणिक्. पति लिया है सो नहीं बनता । हमने उसके नीचे नोट देकर अवनिपति पिद्ध किया है जो जागोरदारो का वाचक है। दूसरे शाह का साधु साहु लिखकर आजकल की धारणा से प्रोफेसर साहब ने बणिक् वंश लिखा है वह भूल है। इस काव्य में एक जगह वणिपट्टकिय ओर एक जगह वणिवइ आया है। यहां दोनों हो जगह वणिपट्टङ्कित अवनि शब्द का अव उपसर्ग का लोप होकर अवनिपट्टाङ्कित से जागोरदार जिमोदार सिद्ध होता है और वनिबइ अवनिपति से जिमोदार सिद्ध होता है। वणिकपति के से अर्थ किया ककार कहांसे लाये। और जगह इस इतिहास में लम्बेचु जदुवंशी सिद्ध है वनिये नहीं है, राजपूत क्षत्रिय है और इस इतिहास से उत्तर को सब जैन जातियां प्रायः क्षत्रिय हैं। इतिहास बहुत बढ़ गया है अब हम संक्षेप में ही दिखाया है।
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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