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________________ m २०६ * श्री लँबेचू समाजका इतिहास * वडु-भत्तिए लक्खणु तेण रम्म पुच्छियउ कण्हें सायारु धम्मु । सम्मत्त - गुणठ - कला - निबंध तोडहि असुहासव - कम्म-बंध । तं सुणेवि भणिउ-साहुल-सुएण जिण - चरणचण- पसरिय-भुएण । भो लंचंकंचु - कुल - कमल - सूर कुल - माणव - चित्तासा - पऊर। वे कण्ह मदन के रूप के अवतार और संसार के चलाने वाले विकारों के जानकार थे। उन्होंने जैन धर्म के रमणीक धुरे में अपना कंधा दिया था और वे प्रेम प्रकट करनेवाले भव्यजनोंके बंधु थे। वे अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत-रूपी रत्नों के कोश थे, उपशान्त आस्रव और रोग के त्यागी थे। वे दुव्यसनों और विषयों की वासना से विरक्त थे। ये राजमन्त्री परत्र (परलोक) का ध्यान रखते थे। ये कण्ह किसी पश्चात्ताप से, तृष्णा को त्याग जिनमन्दिर में बैठे थे। वहीं जैनधर्म के बिचार में विचक्षण कवि लक्ष्मण उनसे बोले और रात्रि को स्वप्न में जो कुछ देखा था व व अंबादेवी ने जो कुछ उपदेश दिया था वह सब कहा। १. मूल में लकारान्त पाठ है। २. मूल में 'दीबन्तु पाठ है।
SR No.010527
Book TitleLavechu Digambar Jain Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZammanlal Jain
PublisherSohanlal Jain Calcutta
Publication Year1952
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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