SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ ध्यान अगनिकर प्रगट सरब कीनो निरवारा॥ धूप अनुपम खेवतें (हो) दु:ख जल निरधार ॥सीमं०॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविणनितीर्थङ्करेभ्योऽप्टकर्मविध्वंसनाय धूप निर्वपा० मिथ्यावादी दुष्ट लोभम्हंकार भरे हैं । सबको छिन में जीत जैन के मेर खड़े हैं । फल अति उत्तमसों जजों(हो)वांछित फलदातार|सीम०॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपा० जल फल आठों दर्व अरघ कर प्रीति धरी है । गणधर इन्द्रनिहतें थुति पूरी न करी है। 'द्यानत' सेवक जान के (हो)जगते लेहु निकार ॥सीमं०॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्योऽनर्घपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपा० जयमाला सोरठा जान-सुधाकर चन्द भविक-खेत हित मेघ हो। भ्रम-तम भान अमन्द तीर्थङ्कर बीसों नमों। चौपाई सीमंधर सीमंधर स्वामी, जुगमंधर जुगमंधर नामी ।
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy