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________________ ૬૪ व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥ मैं शान्त निराकुल चेतन हूं, है मुक्तिरमा सहचर मेरी । यह मोह तड़क कर टूट पड़े, प्रभु ! सार्थक फल पूजा तेरी ॥८॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षपद प्राप्तये फलं निर्वपामि० क्षण भर निज रस को पी चेतन, मिथ्या मल को धो देता है । कापायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है । अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है । दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह ही अर्हन्त अवस्था है || यह अर्ध समर्पण करके प्रभु ! निज गुण का अर्ध बनाऊंगा । अरु निश्चित तेरे सदृश प्रभु ! अर्हन्त अवस्था ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनघं पद प्राप्तये अषं निर्वपामि । पाऊंगा ||६||
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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