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________________ तुम को विन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । पशु-नारक-नर-सुरगति मंझार, भव धर-धर मर्यो अनंत बार ॥११॥ अब काललब्धिबलतें दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुश्याल । मन शांत भयो मिटि सकल द्वंद्व, । चाख्यो स्वातम-रस दुनिकन्द ॥१२॥ तातें अब ऐसी करहु नाथ, विछुरै न कभी तुव चरण साथ । तुम गुणगण को नहिं छेव देव, जग तारन को तुव विरद एव ॥१३॥ आतम के अहित विपय कषाय, इन में मेरी परिणति न जाय । मैं रहूं आप में आप लीन, सो करो होउं ज्यों निजाधीन ॥१४॥ मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश । मुझ कारज के कारन सु आप, शिव करहु, हरहु मम मोहताप ॥१५॥ शशि शांतिकरन तप हरन हेत,
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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