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________________ ૩૪ श्री दौलतरामजी कृत स्तुति दोहा सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रस लीन । सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि-रज- रहस विहीन ॥१॥ पद्धरि छंद वीतराग विज्ञानपूर जय मोहतिमिरको हरन सूर । ज्ञानअनंतानंत धार, दृगसुख- वीरजमंडित जय जय जय परमशांत मुद्रा समेत, भवि अपार ||२|| भविजनको निज अनुभूति हेत । भागनवगजोगेवशाय, तुम धुनि तुम गुण चिंतत निजपर विवेक, सुनि विभ्रम नसाय || ३ || प्रगटं विघटे आपद अनेक | दूपणविमुक्त, तुम जगभूषण सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ॥४॥ अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप । शुभ - अशुभविभाव अभाव कीन,
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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