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________________ __ मंत्र यत्र तुमही मणिरूप ॥८॥ जैसे वन पर्वत परिहार, त्यों तुम नाम जु विष-अपहार। नागदमन तुम नाम सहाय, विषहर विषनाशक क्षणमाय ॥६॥ तुम सुमरण चिते मनमाहिं, विष पीवे अमृत हो जाहिं । नाम सुधारस वर्षे जहाँ, पाप पंकमल रहै न तहाँ ॥१०॥ ज्यों पारस के परसे लोह, निज गुण तज कंचनसम होह । त्यों तुम सुमरण साधे सूंच, __ नीच जो पावे पदवी ऊँच ॥११॥ तुमहिं नाम औषधि अनुकूल, महामंत्र सर जीवन मूल । मूरख मर्म न जाने भेव, कर्म कलंक दहन तुम देव ॥१२॥ तुम ही नाम गारुड़ गह गहे, काल भुजंगम कैसे रहे । तुम्हीं धनन्तर हो जिनराय, मरण न पावे को तुम ठाय ॥१३॥
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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