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________________ १०५ तन-प्रभातनों मंडल सुहात, भवि देखत निज-भव सात सात । मनुदर्पण-द्युतियह जगमगाय, भवि-जनभव-मुख देखतसुआय ।। इत्यादि विभूति अनेकजान, ___ बाहिज दीसत महिमा महान । ताको वरणत नहिं लहत पार, तो अंतरंग को कहै सार । अनअंत गुणनि-जुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार । फिर जोग-निरोधि अघाति हान, सम्मेदथकी लिय मुकति-थान ॥ वृन्दावन वंदत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय । तातें का कहीं सु बार बार, मन-वांछित कारज सार सार । घत्ताछंद जय चंद-जिनंदा आनंद-कंदा, भव-भय-भंजन राजे है । रागादिक द्वंदा हरि सब फंदा, मुकतिमांहि थिति साज है ॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा
SR No.010526
Book TitleJinendra Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Jain
PublisherRaghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi
Publication Year1981
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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