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________________ अनेक वरस तपस्या करी, हो प्रीतम, जो सुख तपसी पाय । समाधि-मरण आराधनां, हो प्रीतम, अल्पकाल में आय । हि । १८ ।। पाप सकल त्यागो तुमे, हो प्रीतम, आहार चार परिहार । छल्ला सांस लग छांडजो, हो प्रीतम, झीणी देह निसार । ।हिं । 1१८ ।। वाहलो सज्जन जो हुदै, हो प्रीतम, खरची वांधे साथ। आप परलोक पधारतां, हो प्रीतम, ए मुझ हाथ नो भांत | हि ||१६|| एह सकल उपदेश ने, हो भवियण माधे हाथ चढाय । तहत करी ने सरधियो, हो भविषण, युगवाहु हुलसाय । ।हि ।।२०।। शुभलेश्या शुभध्यान थीं, हो भवियण, काल कर्यो तिणवार । स्वर्ग पांचवें सुर थयो, हो भवियण, सामानिक पद धार | हि ।।२१।। तर्ज-मूल की सुखमय प्राण को मैंने समझे, आज हुये दुखदाय । कहां ले जाऊं कैसे बचावू, यो सोचे मनमांय रे । ।स । ।११६ ।। जिसके खातिर सुन्दरता थी, उसके लूटे प्राण । ऐसी अपराधिन सुन्दरता, रे मन ! तजदे ध्यान रे ।स ११७ । गर्भरक्षा का धर्म करारा, नहीं तो तजती प्राण | जंगल जाऊं कष्ट उठाऊं, मन में लाई ज्ञान रे । १११८ । जो मैं वन मैं नहीं जाऊं तो, पुत्र तणो संहार । निश्चय करसी पापी आत्मा, बान्धव मारणहार है।स।११६ । शील पुत्र की रक्षा जहां हो, वह वन है सुखदाय । महल भयंकर दुःख का सागर, जिसमें कुमति छाय रे ।स। १२० । अन्त्येष्टि में सभी लगे हैं, सन्धि मिली चित्त चाय । अन्तिम सेवा हुई नाध की, अब चलना सुख दाय रेस 1१२९ । शील पुत्र की जिससे रक्षा, वह दुख भी सुखदाय । वीर-भावना मन में लाके, चली सती दन मांय । ११२६ । द्रव्य भाव से पूर्व दिशा में, देग गति से जाय। सिंह शब्द जब सुना कान में, मन में डर नहीं पाय ३१ 1: पीछे से जप मन में जाया, जेठ का हर दिनार । उत्पय पद से चली सती जी, मन में समता पार :
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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