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________________ आचार्यवर ने केवल व्याख्या और उपदेश ही नहीं दिये अपितु स्वयं उनको अपने आचरण द्वारा उदाहरण प्रस्तुत किया। वे स्वयं खादी एवं स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करते और उसका आग्रह भी करते थे। उनके अनुसार कोई भी राष्ट्र भोजन और वस्त्र में स्वावलम्वी हुये विना स्वाधीन नहीं रह सकता। भोजन में स्वावलम्बन हेतु कृषि एवं वस्त्र स्वावलम्वन के लिये चरखे और खादी के महत्त्व को प्रतिपादित किया । उन्होंने समझाया कि आत्मिक साधना गात्र आन्तरिक आचरण की शुद्धता पर ही निर्भर नहीं करती अपितु शुद्ध वाह्य आचरण भी अनिवार्य है । वेश से साधुत्व की बाहरी पहचान होती है । उसी प्रकार गृहस्थ श्राव के लिये भी देश के प्रति सजगता आवश्यक है । अंग्रेजी वेशभूषा में गौरव एवं सम्मान अनुभव करना आत्महीन है एवं मातृभूमि का अपमान है। यह गुलामी का प्रतीक है। सुन्दर मुलायम व आकर्षक विलायती व मिलों के वर का प्रयोग धार्मिक दृष्टि से आरंभजा ही नहीं संकल्पजा हिंसा का आचरण एवं अनुमोदन है। नैतिक एवं आर्थि दृष्टि से अनिष्टकारी है। इसके स्थान पर खादी सात्विक होने के साथ देश व समाज को आर्थिक सम्बल भी प्रद करती है। चरखे से लाखों-लाख देशवासियों को रोटी रोजी और स्वावलम्बन मिलता है। खादी पर किये गये ख का एक-एक पैसा देश में रहता है व गरीब को मिलता है और राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य और स्वावलम्वन का समर्थन हो है। चर्खे और खादी में सूत व वस्त्र उत्पादन ही नहीं होता बल्कि इससे सादगी, स्वावलम्वन, स्वाभिमान, स्वदे‍ प्रेम और अहिंसा धर्म का विकास होता है । केवल वस्त्र ही नहीं आचार्य श्री ने जीवन जरूरत की गृह व हस्त उद्योगी वस्तुओं एवं आटा मिलों स्थान पर हाथ चक्की के आटे, विस्कुट ब्रेड के स्थान पर देशी सादे भोजन, बाजार व कारखानों की बनी खा वस्तुओं की जगह घर पर हाथ से बनी शुद्ध सामग्री आदि में स्वदेशी के स्वीकार और विदेशी या देशी कारखान में वने जूतों, शक्कर, वनस्पति घी आदि के वहिष्कार का आग्रह किया । मोक्ष के लिये सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चरित्र की रत्नत्रयी की भान्ति देश मुक्ति के लिये स्वाधीनता स्वदेशी और स्वावलम्वन जीवन धर्म और राष्ट्र धर्म रूप में स्थापित करने में अपने आचार्यत्व के दायित्व औ अधिकार का विवेकपूर्वक प्रयोग किया। श्रावक समाज, जो मुख्यतः वैश्य वर्ग ही रहा है, गांधीजी के विचारों, आन्दोलन व कार्यों को अपने अनुकूल नहीं समझ कर उनका समर्थन नहीं करता अपितु अहिंसा की विकृत मान्यता की आड़ लेकर विरोध ही करता था । आचार्यश्री ने इन विरोधों के बावजूद गाँधी विचार को बल दिया । स्वाधीनता व स्वदेशी के चलते वैश्य वर्ग को अपने व्यापार में हानि होती प्रतीत होती थी। उनका आक्षेप होता था कि गाँधीजी के नेतृत्व से उनको क्या लाभ होना है, गाँधीजी तो व्यापार को चौपट कर रहे हैं। आचार्य श्री ने कहा कि राष्ट्रकार्य 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' ही है। इससे विदेशी वस्तुओं के उत्पादकों व व्यापारियों की अल्प संख्या को अहित होता लग सकता है। परन्तु बहुसंख्य प्रजा के लाभ के समक्ष यह नगण्य है। विदेशी वस्तुओं के उपयोग और व्यापार से देश का कच्चा माल सस्ते दाम पर विदेश जाता है व विदेशी माल कई गुणा दामों पर वापिस आता है। इससे देश कंगाल होता है और देश में बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती है। जबकि स्वदेशी माल के उपयोग और व्यापार से देश में रोजगार मिलता है, देश का धन देश को समृद्ध करता है और लोग सम्पन्न होते हैं। गाँधीजी तो स्वदेश के व्यापार व्यवसाय को बढ़ा रहे हैं। अतः वैश्य वर्ग को अर्थ-लाभ और
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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