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________________ मानव जाति का हित जिन आवश्यकताओं की पूर्ति से होता है उसी के प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर ही प्रत्येक धर्म के विधि-विधान, नियमोपनियम, व्यवस्थाओं आदि का विवेचन आचार्य प्रवर ने धर्म एवं धर्मनायक पुस्तक में किया है। इसके साथ ही प्रत्येक धर्म की रक्षा और उसके विकास को लक्ष्य में रखकर ही उसके सिद्धान्तों के आधार पर मार्ग-दर्शन के लिए नीति-निर्देशक विन्दु उसमें सुनिश्चित किये गये हैं तथा प्रत्येक धर्म से उसके उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जिन निर्धारित प्रक्रियाओं का उसकी मर्यादाओं का एवं उसके मानदंडों के कारकों का उल्लेख । उसकी सुव्यवस्था उत्पन्न करने के लिए किया है। प्रत्येक धर्म को प्रभु ने जीवनदायी व्यवस्थाओं की प्रक्रियाओं के साथ जोड़ा है और उसके स्वरूप को टिकाये रखने के लिए उस धर्म के विधि-विधानों एवं नियमोपनियम के अनुसार व्यवहार करने पर जोर दिया है . ताकि कोई भी जीवनदायी व्यवस्थाओं को गड़वड़ा कर धर्म के स्वरूप को विकृत न कर सके। आचार्य प्रवर ने 'धर्म और धर्मनायक' पुस्तक में ठाणांग सूत्र नामक तीसरे अंगसूत्र से निम्नांकित दस . धर्मों का विधान किया है (१) ग्रामधर्म (२) नगरधर्म (३) राष्ट्रधर्म (४) व्रतधर्म (५) कुलधर्म (६) गणधर्म (७) संघधर्म (८) सूत्रधर्म (६) चारित्र धर्म (१०) अस्तिकाय धर्म ___इन दस धर्मों का यथावत् पालन करने के लिए तथा अन्य प्रकार की नैतिक एवं धार्मिक व्यवस्था की रक्षा करने के लिए दस प्रकार के धर्म-नायकों की योजना भी की गई है। धर्म-नायकों के नाम इस प्रकार है (१) ग्राम स्थविर (२) नगर स्थविर (३) राष्ट्र स्थविर (४) प्रशास्ता स्थविर (५) कुल स्थविर (६) गण स्थविर (७) जाति स्थविर (८) संघ स्थविर (६) सूत्र स्थविर (१०) दीक्षा स्थविर।। यहां पर आचार्य प्रवर ने दस धर्मों के महत्व के बारे में उल्लेख करते हुए कहा है कि इन दस धर्मों की श्रृंखला को ठीक तरह से समझने वाला व्यक्ति ही दुर्व्यवस्था और सुव्यवस्था का वास्तविक अन्तर समझ सकता ६ क्योंकि प्रकृति के नियमों की सुन्दर से सुन्दर व्यवस्था करने वाला धर्म ही है। जहां धर्म नहीं वहां व्यवस्था नही और जहां व्यवस्था नहीं वहां सुख-शांति नहीं। इसलिए ग्राम, नगर या राष्ट्रधर्म आदि धर्मों का यथावत् क्रम ज्ञान धर्मनायक को होना चाहिये, जो मनुष्य एकांगी दृष्टि से धर्म का विचार करता है तो वह दुव्यवस्था जा सुव्यवस्था का भेद नहीं समझ सकता। अतएव सुव्यवस्था और सुख-शांति स्थापित करने के लिए विवेक पान करना नितान्त आवश्यक होता है। आचार्य प्रवर ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि प्रत्येक धर्म के विधि-विधानों को दूसरा विधि-विधानों से जोड़ने से कार्यों में सुव्यवस्था उत्पन्न न होकर दुर्व्यवस्था हो जाती है। अतः उसक हस्तक : जाना चाहिए। : आचार्य प्रवर कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकार मर्यादा के अनुसार कार्य आरम्भ करता उसे पार उतार सकता है। अधिकार मर्यादा का उल्लंघन करने वाला कार्य में सफलता नहीं पाता। इस बात को उदाहरण से स्पष्ट करते हुए कहा है कि ग्राम-स्थविर ग्राम की मर्यादा में रहता हु के अभ्युदय का कार्य आरम्भ करके नगर का उद्धार करने चल पड़े तो वह दोनों में से एक भी काय सम्पन्न । " .: १०८
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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