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________________ आचार्यश्री क्रान्ति के अग्रदूत थे। उन्होंने लोगों में श्रम तथा सद्संस्कारों को जगाया। उन्हें प्रमाद रहित जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि सुखद जीवन का पहला सूत्र है कि हम अपने अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्य पर जोर दें। दूसरों में बुराइयों की अपेक्षा अछाइयों को ढूंढें । आलोचना तो करें किन्तु वह दूसरों की नहीं स्वयं अपनी करें। वास्तव में इन सबके प्रति वही सचेष्ट रहता है जो विनयशील हो, और यह विनयशीलता गुणों की वंदना से प्राप्त होती है। आज हमारे जीवन से विनय गायव होता जा रहा है, उसका मूल कारण है कि हम अपनी संस्कृति, अपने आदर्शों से विमुख हो गए हैं। यह विमुखता हमारे असन-वसन तथा आचरण पर निर्भर करती है। हमारे भोजन में सात्विकता की अपेक्षा राजसिक तथा तामसिक अंश अत्यधिक हैं। इसलिए हम विनाश के कगार पर खड़े हैं। विचार करें, हम जहाँ एक ओर अपनी आध्यात्मिक सम्पदा से वंचित हैं वहीं अपनी भौतिक सम्पदा का भी निरन्तर विनाश करते जा रहे हैं। ___ आचार्यश्री की यह सीख कि मनुष्य को स्वाध्यायी होना चाहिए, बड़ी सटीक थी। स्वाध्याय से व्यक्ति में भीतर का ज्ञानमुखर होता है। जब तक भीतर का ज्ञान सुप्त-प्रसुप्त रहता है तब तक परिवार में, समाज में, देश और राष्ट्र में अनेक विद्रूपताएँ अपना ताण्डव नृत्य करती है। जिसका परिणाम होता है कि छोटी सी छोटी इकाई भी दिग्भ्रमित हो टूटने लगती है। आचार्यश्री ने अपनी लेखनी और प्रवचनों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को समाप्त करने का एक अनुकरणीय प्रयास किया। वास्तव में वे सच्चे समाज सुधारक थे। अन्त्योदयी तथा पतितोद्धारक थे। सचमुच वे एक में अनेक थे, अद्भुत थे। जो कुछ वे कहते उसके पीछे उनका अनुभव बोलता था। वे उपदेश के साथ-साथ उपाय भी बताते चलते थे। आचार्यश्री पुरुषार्थ पर सदा बल देते थे। उनकी दृष्टि में समाज में फैली अर्थ-वैषम्य-जनित समस्या का सुन्दर समाधान है कि व्यक्ति परिग्रह के व्यामोह से विमुक्त रहे अर्थात् अपरिग्रह के सिद्धान्त को जीवन में साकार करे। अपरिग्रह जैन संस्कृति का प्रतिमान है। अपरिग्रहीवृत्ति के अभाव में संग्रह करने की प्रवृत्ति आज वेगवती होती जा रही है, जिसे देखो वह ही कम समय में बिना सम्यक पुरुषार्थ के धनपति बनने की चाह संजोये बैठा है। धनपति तो बनें पर, वह धन किस काम का जो बिना श्रम-परुषार्थ के अर्जित किया गया है: वह तो निश्चय हा जीवन को सुख और सन्तोष की अपेक्षा विभिन्न तनाव ही देगा। ये तनाव ही तो हैं जो व्यक्ति को यथार्थ से दूर रखते हैं। वास्तव में तनाव से सम्पृक्त जीवन में वसन्त का सर्वदा अभाव रहता है। जीवन में वसन्त हर क्षण छाया रहे इस हेतु आचार्य श्री सहज और अनासक्त जीवनचर्या को अधिक सार्थक तथा उपयोगी मानते थे। वास्तव में व किसी एक के नहीं, सबके प्रेरणा-स्रोत थे। ___ जन्म और जीवन दो जागतिक शब्द हैं। जन्म लेना एक बात है और जन्म लेकर जीना यह दूसरी बात है। जन्म तो सभी लेते हैं किन्तु जीवन को सही अर्थों में जीना विरले ही जान पाते हैं। कितनी भारी विडम्बना कि जो जीवन अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति का स्रोत है, वह जीवन सामान्यतः बोझ सा लगता है। यह सच जीवन जीना एक कला है और जो इस कला से परिचित हो जाते हैं, वे महानता विराटता के अभिदर्शन कर ला हैं। निश्चय ही वे और कोई नहीं सन्त होते हैं। ऐसे ही एक दिव्य सन्त श्रीमद् जवाहराचार्यजी हुए हैं जिन्हान अपने तप-त्याग के बल से धर्म को, संस्कृति को जन-जन तक सुलभ कराया। सम्यक्-दर्शन, ज्ञान-चरित्र ::, थगा में निरन्तर अवगाहन करने वाले श्रीमद्जवाहराचार्य जी सचमुच जैन संस्कृति के एक सजग प्रहरी थ।
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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