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________________ समाज में सैंकड़ों की संख्या में पांच महाव्रतधारी साधुओं के होते हुए भी समाज की अवनति हो रही है। हम साधुओं पर भी इसका बड़ा उत्तरदायित्व है। अतः मैं अपना कर्तव्य समझकर श्री संघ को निवेदन करता हूं कि सब समाज और सम्प्रदाय परस्पर प्रेमभाव रखें । परस्पर निन्दात्मक लेख, हैंडविल पुस्तक वगेरह किसी प्रकार का छापा न छपावें । हम अपनी तरफ से प्रतिज्ञा पूर्वक आज्ञा करते हैं कि हमारी आज्ञा में चलने वाले संघ में किसी भी तरह का निन्दाजनक लेख, जिससे दूसरे का दिल दुखें, नहीं छापा जाय। दूसरे पक्ष वाले यदि इस प्रकार के लेखादि छपावें तो भी इस सम्प्रदाय के संघ की तरफ से प्रत्युत्तर के रूप में कुछ भी न छपेगा । किसी दूसरे से छपवाकर कह देना कि हमने नहीं छपाया, यह मायामृषावाद है । सत्य को आदरणीय समझ कर इसे भी स्थान नहीं दिया जायेगा। यदि कोई व्यक्ति साधुओं पर झूठा कलंक लगायेगा तो योग्य मध्यस्थों द्वारा खुलासा करने में कोई आपत्ति नहीं है।' २. इसी के दो वर्षों बाद विक्रम संवत १६८२ में एक ऐसी ही घटना हो गयी जिससे आपकी साम्प्रदायिक एकता की प्रवल इच्छा का पता चलता है। हुआ यों कि कुछ आपसी मतभेद से पूज्य हुक्मीचंद जी म. सा. कुछ सन्त अलग हो जाने से दो आचार्य हो गये । एक आचार्य मुन्नालाल जी म. सा. एवं दूसरे आ. जवाहरलाल जी । एक ही सम्प्रदाय के दो टुकड़े कोई भी विवेकवान कैसे पसन्द कर सकता है यही स्थिति आपके साथ भी थी। जलगांव से आप चातुर्मास पूर्ण कर रतलाम पधार रहे थे कि रास्ते में मुनि देवीलाल जी म. सा. आपसे मिले उन्होंने आपके समक्ष साम्प्रदायिक प्रेम की स्थापना का प्रस्ताव रखा। आप तो शांति के प्रेमी थे ही। रतलाम में एकता सम्वन्धी वार्ता करना निर्धारित हुआ । आप अत्यन्त दूरदर्शी एवं संयम के सच्चे प्रेमी थे, आपने वार्ता प्रारम्भ होने के पूर्व पांच मुख्य श्रमणों को पंच नियुक्त कर दिया कि अब तक के समस्त दोषों की शुद्धि एवं प्रायश्चित कर लिया जावे। इस प्रकार इन पंचों के नेतृत्व में सब प्रकार से शुद्धि कर ली गयी । इस समय तक कोई भी साधु दोषी नहीं रहा। अब श्रावकों ने एकता के लिए बातचीत प्रारंभ की परन्तु दुर्भाग्य से सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। संकल्प पूरा हो जाने से आचार्य श्री ने विहार कर दिया। तब कुछ संघ प्रमुखों ने पुनः वार्ता प्रारम्भ करने का वचन दिया। आप ‘संघम् श्रेयम' को मानकर चलने वाले थे अतः कुछ दिन और रुक गये। फिर भी प्रयत्न सफल नहीं हुए। आपने पुनः विहार कर दिया डेढ़ मील भी नहीं चले होंगे कि श्रावकों का शिष्टमण्डल पुनः आ पहुँचा, अनुनय विनय के कारण आपको पुनः रुकना पड़ा। इस प्रकार ३-४ वार विहार रोक-रोक कर आप आशावादी बने रहे और उस धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा का फल निकला फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा विक्रम संवत १६६२ को जब कुछ शर्तों के साथ हुक्मीचंद जी म. सा. के दोनों आचार्य एकता के सूत्र में बंध गये । दोनों आचार्य जव रामबाग में व्याख्यान स्थल पर पधारे और जनता ने जब प्रवचन में एकता की बात सुनी तो जय-जयकारों से पाण्डाल गूंज उठा। अन्त में जवाहराचार्य ने फरमाया कि एकता का द्वार आज खुल गया है। साधुओं में प्रेम बढाने का अवसर प्राप्त हुआ है। यदि इसी प्रकार प्रेम एवं स्नेह में वृद्धि होती रही तो दोनों को एक होने में देर नहीं लगेगी हम सबको शांति एवं प्रेम की वृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहना है 1 C ३. इसी प्रकार जब आप जावरा पधारे तब ओसवाल पंचायत ने ओसवालों को जाति से कृत कर रखा था। आपने एकता पर मार्मिक उपदेश दिया और आठों ही व्यक्ति पुनः जाति में शरीक कर लिये गये।
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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