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________________ 100 गान सके कोई संतों की जग में महिमा पूरी, भव की चकित बुद्धि में रहती सीमा की मजबूरी । फिर भी, गिरा पवित्र बने वस उनका गीत सुनाता; अपनी कोमल कविताओं का पग पर फूल चढाता । तप कर धरती जलती है जव सागर-धार उवलती है तव नीर ताप पर चढ़ जाता है मेघ गगन में वन जाता है। वही घटा फिर झर्झर् झरती नयन धरा के शीतल करती कारण-कार्य सभी हैं गुम्फित इसमें ही जग रहता सीमित । जब भी जिसकी पड़ी जरूरत शक्ति भुवन में खिलती अविरत, वही उपस्थित हो जाता है दृग के सम्मुख मुस्काता है । नियम प्रकृति का यही अटल है इस पर आश्रित कर्म प्रबल है; अपना पथ यह स्वयं बनाती बाधा इसमें कभी न आती ! अपने मन की ही इच्छा से साधु-पुरुष की ही शिक्षा से, सृष्टि चला करती है अविरल इस पर निर्भर है नभ-जल-थल ! सर्ग दो उठो लेखनी ! शब्द शब्द में नई रोशनी भर दो; चलने को अविराम धरा पर जीवन उज्ज्वल कर दो। परम पुरुष का चरित वखानूँ ऐसा मुझ में चल दो; भाव हृदय के रन्ध्ररन्ध्र में गतिमय और विमल दो । जो भी आते प्रेरित आते अपने अपना कर्म सजाते; उससे भिन्न नहीं कुछ भी है अग जग में वस तत्त्व यही है । इसके कारण शुभ फल आता सवको केवल यही नचाता, मानव आता इस भूतल पर शक्ति वही अपने में भर कर । शक्ति चाहती काम कराना मानव चुनता ताना-बाना, मानव तो कठपुतली ऐसा सब कुछ करता उसके जैसा ! कोई इसे अलौकिक कहता इसके आगे नत सिर रहता; कोई सदा उदास हृदय से सहमे रहते रश्मि उदय से । अपना-अपना कर्म सभी में तरू-सा उगता शान्त मही में; किन्तु वही फल-फूल निखरता जिसमें दैवी तत्त्व उभरता !
SR No.010525
Book TitleJawahar Vidyapith Bhinasar Swarna Jayanti Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranchand Nahta, Uday Nagori, Jankinarayan Shrimali
PublisherSwarna Jayanti Samaroha Samiti Bhinasar
Publication Year1994
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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