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________________ ૬ ( पज्जुवासामि ) पर्युपासना करता हूं ( दुविहं ) द्विकरण और (तिविहेणं) तीन योगोसे जैसे कि - ( न करेमि ) न करूं (न कारवेमि) अन्य आत्माओं से न कराऊ ( मणसा ) मन करके ( वयसा ) वचन करके (कायसा) काय करके ( एहवी ) इस प्रकार ( सद्दहणा ) पौषध व्रत करनेकी श्रद्धा करना और (परूपणा करीयें) प्रतिपादन करना ( ते वारे फरसनायें करी शुद्ध) जिस समय पौषध व्रत ग्रहण करना तब शुद्धिपूर्वक ( एहवा ) ऐसे (इग्यारमा) एकादशवा ( पडिपुण्ण ) प्रतिपूर्ण अष्ट याम पर्यन्त (पौपध त्रतना ) पोपध व्रतके ( पच) पात्र ( अइयारा) अतिचार ( जाणियव्वा) जानने योग्य तो है किन्तु ( न समायरियव्वा ) आचरणे योग्य नहीं हैं (तंज्जहा) तद्यथा ( ते आलोउ ) उनकी आलोचना करता हू (अप्पड - लेहिय टुप्पडिले हिय सेज्जा संथारए) अप्रतिलेखित वा दुःप्रतिलेखित शय्या संस्तारक अर्थात् जिस स्थानमें पौषध व्रत धारण किया है वही शय्या और तृणादिका आसन किया है सस्तारक उनोको प्रथम तो देखा ही नहीं यदि देखा है तो सम्यग् प्रकारसे नहीं इसी प्रकार आगे भी जानना जैसे के- (अप्पमज्जिए दुप्पमज्जिए सेज्जा संथारए ) शय्या संस्तारकको अप्रर्माजित किया हो वा दु प्रमार्जित किया हो, प्रथम तो शय्या संस्तारक प्रमार्जित किया ही नहीं यदि किया है तो दुष्ट प्रकारसे इसी प्रकार ( अप्पडिले हिय दुप्पडिलेहिय उच्चार पासवण भूमि) प्रथम तो प्रतिलेख - नता नहीं की जैसे कि - उच्चार ( पूरीप) विष्टाकी वा ( पासवण ) [ प्रस्त्रवण ] मूत्रकी (वण्ण) मलादिककी भूमि फिर ( अप्पमझिए दुप्पमझिए उच्चार पासवण भूमि) विष्टा और मूत्रकी भूमि प्रमार्जन नहीं की वा दुष्ट प्रकार से प्रमार्जन की है ( पोसहस्स) पौषधको ( सम्म ) सम्यग् प्रकार से ( अणगुपालणयाय) पालन न किया हो जैसेकि - पोषवोपवासमे भोजनकी चिंता वा अन्य प्रकारसे चिंता करनी ( जो मे देवप्ति अइयारो कउ ) जो मैंने दिवस सम्बन्धि अतिचार किया हुआ है (तरस मिच्छामि दुक्कडं ) उन अतिचारेका पापरूप फल निष्फल हो ||
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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