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________________ र्यच सम्बंधि ( मेहुणर्नु पञ्चक्खाण ) मैथुन सेवनेका प्रत्याख्यान (जावनीवाय) सर्व आयु पर्यन्त (देवता देवी सम्बन्धि) देव देवी सम्वन्धि (दुविह तिविहेणं ) द्विकरण और तीन योगसे जैसेकि-( न करेमि ) मैथुन कर्म स्वय सेवन न करू (न कारवेमि) नाहीं ओरोंसे आसेवन कराऊं अ• पितु तीन योगोंसे जैसेकि-(मणसा) मन करके (वयसा) वचन करके (कायसा) काय करके ( मनुष्य तियच सम्बन्धि ) किन्तु मनुष्य और तिर्यग् सम्बन्धि (एगविहं) एक करण और ( एगविहेणं ) एक ही योग करके जैसेकि-(न करेमि) न करूं (कायसा) काय करके (एहवा चौथा थूल मेहुण विरमण व्रतना) ऐसे पूर्वोक्त कथन किए हुए चतुर्थ मेथुन विरतिरूप बनके (पच) पाच ( अइयारा ) अतिचार ( जाणियन्वा ) जानने योग्य है किन्तु (न समायरियव्वा) आचरणे योग्य नहीं हैं क्योंकि इनके आसेवनसे सदार संतोषी वन खडित हो जाता है (तजहा ते आलोउ) जैसेकि(इत्तरिय परिग्गहियागमणे ) यह सर्व अतिचार सदार संतोषीको स्वकाया करके ही होते है इसलिए इनका पदार्थ-श्रीमान् परम पडिन आचार्यवर्य श्री सोहनलालजी महाराननो निम्न प्रकारसे करते है, जिसका कारणवशान् बाल्यावस्थावाली कन्याके साथ विवाह हो गया है यदि वे अप्राप्य योतनकाठमें स्त्रीग करे नो प्रथम अतिचाररूप दोष होता है, द्वितीय अनिगार ( आरिपहियागमागे ) निस कन्याके साथ उपविाह [मागना] तो हो गया है कि तु आर्य विाह नहीं हुआ है यदि उपके साा सग करे- नो द्वितीय अनितार है (अगंगकी ग) अनग नाम कामदेव का है कीड़ा नाम क्रीड़ा अर्थात् रमण करने का है सो कामको आशा गर अय प्र.से उपहास्यादि क्रिया करनो अब यदि नत्र समास करें तो नभा अनंग अर्थात् अंगसे नित स्थानोपरि कुत्रेटा करना उपका ही नान अनग कोडा है इनी अर्थी स प्रकारको कुोटारे समा शिा हो जाती है, । सो दि ग क्रीडा को ले तो तृतीय गीगार है, चतुर्थ भतिवार (पर विवाह करणे) यदि परके अभिवाह हुरको नोड़कर अपना विवाह कर
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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