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________________ ४४ करवाए हों तथा जो आसेवन करते हैं उनकी अनुमोदना की हो सो इस प्रकारके दोषोसे मै पीछे हटना हूं ॥ इच्छामि ठामि काउसग्गं जो मे देवसि अइ. यार कओ काइओ वाइओ माणसिओ उसुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिजो दुज्झाओ दुचिंतिओ अ. णायारो अणाछियचो असावग्गो पावग्गो नाणे तह दसणे चरित्ता चरिते सुय लामाइयं तिण्हं गुणव्वयाणं चउण्हं सिक्खाव्ययाणं पंचण्हं अणुव्वयाणं बारस्त विहस्त सावग धम्मस्त जं खंडियं जं विराहियं जो मे देवसि अइयार को तस्त मिञ्छा मि दुक्कडं ॥ अर्थ-मै इच्छा करना हूं एक स्थानमें बैठकर कायोत्सर्ग करनेकी क्योंकि-जो मैं ने दिनमें अनिचार किए है कायासे, वचनसे, मनसे, अथवा सत्रविरुद्ध प्रतिपादन किया हो कुमार्गमें गमन किया हो अकल्पनीय पदार्य सेवन किए हों अकरणीय कार्य किए हों सो इनकी निवृत्ति के लिये शुभ ध्यान करता हूं तथा दुर्ध्यानसे निवृत्ति करता हूं, दुश्चित्वनसे भी पीछे हटना हूं। इसी प्रकार अनाचार अनिच्छनीय (जिसकी इच्छा करनी योग्य नही है) पदार्थ अश्रावक भावकी प्रवृत्तिसे भी निवृत्ति करता हू । यदि ज्ञान दर्शन चरित्राचरित्र श्रुत सामायिकमें दोप लगा हो तो उससे भी निवृत्ति करता हूं। यदि तीनों गुणव्रतों चार शिक्षाव्रतों पंच अनुव्रतों एवं द्वादश प्रकारके श्रावक धर्मको खंडिन किया हो अथवा विराधित किया हो जो मैंने दिनमें अनिचार किया है उससे मैं पीछे हटना हूं तथा वह मेरा अतिचाररूप पाप निष्फल हो । १ ध्यानमें यहा तक ही पठन करना चाहिये ।
SR No.010524
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherLala Munshiram Jiledar
Publication Year1915
Total Pages101
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size4 MB
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