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________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ. ७ सू. ४० सम्यग्दृष्टे: पञ्चातिचारा: ३११ विकल्पा भवन्ति, सद्यथा सल्बम् १ असत्वम् २ सदसत्वम् ३ अवाच्याचं चेति, इति रीत्या सप्तष्टिदिशल्पा भवन्ति । तद्यथा-'जीवः स्खल्लितिको जानिति ? एवम-जीवोऽसन्नित्यपि को जानाति' इत्यादि । एवम्-सतः १ असत:-२ सदसतो३ जाच्यस्य४ वा सिम् उत्पत्ति नीति को जानाति, इत्यादि बैनयिकानां मते द्वाविंशद्विकल्पाः, यथा-'कायेन-चचसा-मनसा-दानेन चेत्येभि श्चतुभिः पकारैः सुर-१ नृपत्ति २ शुनि-३ ज्ञानि ४ स्थविरा ५ ऽधम ६, मात ७ पितृषु ८ अष्टसु बिनय यात्याधानाः सन्तो चैनयिकाः तेषां सपर्या कुर्वन्ति, इत्येन मप्टानां चतुर्मिणितत्वे द्वात्रिंशभेदा अनन्ति अनधिगृहीताः पुनः सांसारिक वैषयिकभोगसुख पराणां पुरुषाणां निश्रेषससुखं व्यर्थम्, प्रकृष्टैर्य सम्पत्तिहोते है। इन सठ विकल्पों में उतात्ति के चार शिशल्य सया, अर सदसत्य और अवाच्यत्व-और जोड देने ले लड से हो जाते हैं। जैसे-जीव सत् है, यह कौन जानता है ? जीप अलत है, यह कौन जाने ? इत्यादि। इसी प्रकार कौन जानता है कि साल की उत्पत्ति होती है, असत् की उत्पत्ति होती है, बदलत् की उत्पत्ति होती है अथवा अवाच्य की उत्पत्ति होती है ? वनयिकों के बत्तील भेद हैं। उनकी मान्यता है कि हाथ से, वचन से, मन से और दान से, इस प्रकार चार प्रकार से (१) सुर (२) नृपति (३) मुनि (४) ज्ञानि (५) स्थचिर-वृद्ध (६) अषम (७) माता और (८) पिता, इन आठ का पिना-यावृत्य करना चाहिए। वे लोग इनकी पूजा करते हैं । इस प्रकार आठ का चार के साथ गुणाकार करने पर (३२) बत्तीह मेद होते हैं। ઉત્પત્તિના ચાર વિકલપ સત્વ, અસત્વ, સદસત્વ અને અવાચ્યત્વને ઉમેરી દેવાથી સડસઠ ભેદ થઈ જાય છે જેમ કે-જીવ સત્ છે એ કણ જાણે છે, જીવ અસતુ છે કે શું જાણે છે! વગેરે એવી જ રીતે કોણ જાણે છે કે સતની ઉત્પત્તિ થાય છે, અસત્ની ઉત્પત્તિ થાય છે, સદસની ઉત્પત્તિ થાય છે અથવા અવાચ્યની ઉત્પત્તિ થાય છે? વનયિકોના બત્રીસ ભેદ છે. તેમની માન્યતા એવી છે કે કાયાથી, વચનથી. મનથી અને દાનથી એ રીતે ચાર પ્રકારથી (૧) સુર (૨) નૃપતિ (3) मुनि (४) शानि (4) स्थविर-वृद्ध (6) अधम (७) माता मन (८) पिता આ આઠેની વિનયવૈયાવૃત્ય કરવા જોઈએ. તે લોકે એમની પૂજા કરે છે. આ રીતે આઠને ચાર સાથે ગુણાકાર કરવાથી (૩૨) બત્રીસ ભેદ થાય છે.
SR No.010523
Book TitleTattvartha Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages895
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size73 MB
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