SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ तत्त्वार्थसूत्र रूपसंदरस्य प्रतिपादितत्वेन, सम्पति- तहेतुभूतानि समिति-गुफ्यादि तपः पर्यन्तानि प्रतिपादयितुमाह-तम्ल हेउणो' इत्यादि । तद्धेतन:-तस्य पूर्वोक्तास्रवनिरोधलक्षणस्य संपरस्य देवा-उपायाः खलु-समिति, गुप्ति, धर्माऽनुपेक्षा रीषह जय-चारिभाषिक तपश्वेते भान्ति । तत्र-प्रणयन प्राणिपीडा परिहारार्थ वर्तन-प्रवृतिः समितिः ईया-भापै-पणाऽऽऽक्षेपणा-परिष्ठापना रूपापञ्चविधा, सरकारणादात्मनो गोपन-रक्षणं गुप्तिः मनोवाकूकायरूपा, भवार्णवादृद्ध ग देवे द्रनरेन्द्रसूर्यचन्द्रादिवन्दिते पदे-स्थाने-आत्मानं धारयति-स्थापयति धर्मः, शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनरूवाऽनुप्रेक्षा, क्षुत्पादि- वेदनोत्पत्तौ सत्यां पूर्वोपार्जित कर्मनिरणार्थ परितः-समन्तात् सहनं रूप. प्रास्त्रब के निशेध र वरूप वाले संघर का प्रतिपादन किया गया, अय संबर के.कारण समिनि गुप्ति आदि का प्रतिपादन करते है-- - समिलि, गुति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजघ, चारित्र और तप संचर के कारण है सम्यकू प्रकार से अर्थात् प्राणियों को पीड़ा न उपजे, इस प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति के पांच प्रकार हैं-(१) ईर्या (२) भाषा (३) एषणा (४) आदाननिक्षेपण और (५) परिष्ठापना । आत्मा को संसार के कारणों के गोपना-बचाना गुप्ति है। इसके तीन भेद है मनोगुप्ति, वचनप्ति और कायगुप्ति । जो लंसार समुद्र से पार करके देवेन्द्रों नरेन्द्रों एवं चन्द्र-स्मृयों द्वारा बन्दनीय पद पर आत्मा को धारण करे वह धर्म है। बा-बार शरीर आदि के स्वभाव का चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । क्षुधा तृषा आदि पेदना उलन होने पर पूर्वकृत આસવના નિરોધ સ્વરૂપવાળા સંવરનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું, હવે સંવરના કારણે સમિતિ ગુપ્તિ આદિનું પ્રતિપાદન કરીએ છીએ સમિતિ, ગુપ્તિ, ધર્મ, અનુપ્રેક્ષા, પરિષહ જ્ય, ચારિત્ર અને તપ સંવરના કારણ છે. સમ્યફ પ્રકારથી અર્થાત્ પ્રાણિઓને પીડા ન ઉપજે એ પ્રકારે प्रवृत्ति ४५वी समिति छ. समितिना पांय २४-(१) या (.) लाषा (3) मेष (४) माहाननिय मने (५) प२ि०४।५ना मामाने संसारना કારણેથી ગોપ-બચાવ ગુપ્તિ છે એના ત્રણ ભેટ છે–મને ગુપ્તિ, વચન ગુપ્તિ અને કાયગુપ્તિ જે સંસાર-સમુદ્રની પાર જઈને દેવન્દ્રો, નરેન્દ્રો તથા ચન્દ્ર-સૂર્ય દ્વારા વન્દનીય પદ પર આત્માને ધારણ કરે તે ધર્મ છે-વારંવાર શરીર આદિના સ્વભાવનું ચિન્તન કરવું અનુપ્રેક્ષા છે શુષા, તૃષા આદિની વેદના ઉત્પન્ન થવાથી પૂર્વકૃત કર્મોની નિર્જરા માટે તેમને સમભાવથી સહન
SR No.010523
Book TitleTattvartha Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages895
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy