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________________ प्रथम अध्याय - - - उसका विनाश करना ही पड़ता है। तो उसे मोक्ष का कारण कैसे माना जाय ? । समाधान-जीवों के परिणाम तीन प्रकार के होते हैं-(१) अशुभ (२) शुभ, ... और (३)-शुद्ध । पाप-जनक अशुभ परिणामों का विनाश करने के लिए पुण्य-जनक शुभ-परिणामों का अवलम्बन लेना पड़ता है । जव अशुभ परिणामों का विनाश हो जाता है तब शुद्ध परिणामों के अवलम्बन से शुभ-परिणाम का भी परित्याग करना पड़ता है। इस प्रकार पुण्य ग्राह्य है और उच्चतम अवस्था प्राप्त होने पर वह हेय बन जाता है । उदाहरणार्थ-मान लीजिए, किसी व्यक्ति को भारत वर्ष से लंदन जाना है तो उसे जहाज पर बैठने की आवश्यकता पड़ेगी और समुद्र के उस पार पहुँच जाने पर जहाज को त्यागने की भी आवश्यकता होगी। इस प्रकार लंदन पहुँचने के लिए जहाज पर चढ़ना भी अनिवार्य है और उससे उतरना भी अनिवार्य है। यदि कोई अज्ञानी पुरुष यह कहने लगे कि समुद्र के उस पार पहुँचने पर जहाज का त्याग अनिवार्य है तो पहले से ही उस पर न बैठना ठीक है; या कोई जहाज़ पर श्रारूढ़ होकर फिर उतरना न चाहे तो वह लंदन नहीं पहुँच सकता। इसी प्रकार अन्त में पुण्य रूपी जहाज को हेय समझ कर कोई उसका पाप समुद्र के पार पहुंचने से पहले ही से त्याग कर बैठे तो वह संसार-समुद्र में डूबेगा। इस प्रकार यह निर्विवाद है कि पुण्य मोक्ष का भी कारण है अतएव उसे सर्वथा अग्राह्य बताना अनुचित है। वास्तव में अत्यन्त उच्च कोटि पर न पहुँचे हुए मुमुक्षु जीवों के लिए पुण्य एक मुख्य अवलम्बन है अतएव-पाप पर विजय प्राप्त करने के लिए पुण्य का प्राचारण करना श्रावकों का परम कर्तव्य है। पाँचवाँ पाप तत्त्व है। अशुभ परिणति के द्वारा जीव अशुभ-दुःख-प्रद कर्मों का बंध करता है, उसे पाप कहते हैं। पाप आत्मा को मलीन बनाने वाला और दुःख का कारण है। पाप के अठारह भेद बतलाये गये हैं । वे इस प्रकार हैं: (१) प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन ( ५) परिग्रह १६) क्रोध (७) मान (८) माया (६) लोभ (१०) राग (११) द्वेष (१२ ) क्लेश (१३) अभ्याख्यान (१४। पिशुनता (१५) परपरिवाद (१६) रति-परति (१७) माया-भूषा (१८ ) मिथ्या-दर्शनशल्य । __ तात्पर्य यह है कि प्राणातिपात श्रादि उपर्युक्त अठारह का श्राचरण करने से पाप का उपार्जन होता है । इसका परिपाक आत्मा के लिए अति भयंकर होता है। यह बयासी ( ८२ ) प्रकार से भोगा जाता अर्थात् पाप के उदय से चयासी प्रकार की पाप-कर्म प्रकृतियों का बंध होता है। जैसा कि पहले कहा है-प्रति समय अनतानन्त कर्म-दलितों का बंध होता है । जो मुमुक्षु जन अन्तर्दृष्टि होकर अपने भावों की जागरूकता के साथ चौकसी करते हैं, जो अशुभ भावना को अन्तःकरण में अंकुरित नहीं होने देते, वे पाप-बंध से और उसके दुःखमय विपाक से बच कर क्रमशः अनन्त सुख के भागी बनते हैं। एक समय
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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