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________________ अठारहवां अध्याय । ७०१ ] प्रकार कर्मों के लेप से भारी आत्मा इस लोक में रहता है और जब कर्म-मुक्त होने पर निर्लेप होता है तब स्वभावतः ऊध्र्वगमन करता है। (३) बन्धविश्लेष-जैसे बीजकोश में बँधा हुवा एरण्ड का बीज, बीजकोश से अलग होते ही ऊर्ध्वगमन करता है उसी प्रकार कर्म-बन्धन से बँधा हुश्रा जीव, बन्धन का विश्लेष होने पर स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करता है। (४) स्वाभाविकगति परिणामः-पृथक्-पृथक् पदार्थों का पृथक्-पृथक् स्वभाव होता है । जैसे वायु का स्वभाव तिछी गति करना है, और अग्निशिखा का स्वभाव ऊपर की और गति करना है, इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव ऊपर की तरफ गमन करता है । उसकी गति का प्रतिबंधक कोई भी कारण जब नहीं रहता तो उसकी स्वभाविक ऊर्ध्वगति होती है। प्रश्न:-आपने जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन बतलाया है परन्तु जीव अमूर्त है और अमूर्त पदार्थ सब निष्क्रिय होते हैं। काल, श्राकाश आदि जितने भी अमूर्त पदार्थ हैं उनमें से एक भी सक्रिय नहीं है, अतः जीव भी सक्रिय नहीं होना चाहिए । क्रिया के अभाव में ऊर्ध्वगमन कैसे करेगा ? समाधान:-अमूर्त होते हुए आकाश अचेतन है, काल अचेतन है, तो क्या जीव भी श्रमूर्त होने से अचेतन माना जायगा ? नहीं। यद्यपि अमूर्तत्व गुण काल और श्राकाश के समान जीव में भी है किन्तु चेतना श्रात्मा का विशेष गुण है, इसी प्रकार क्रिया भी श्रात्मा का विशेष गुण है । जैसे श्राकाश में चेतना नहीं है फिर भी श्रात्मा में उसका सद्भाव हैं इसी प्रकार क्रिया आकाश में नहीं है तो भी प्रात्मा में हैं। ऐसा मानने में कुछ भी बाधा नहीं आती। . प्रश्न-यदि श्रात्मा का गुण क्रिया है और वह ऊर्ध्वगमन करता है तो उसकी स्थिति कभी नहीं होनी चाहिए। आकाश अनन्त है उसकी कहीं समाप्ति नहीं है, सो सिद्ध जीव की गति क्रिया की भी समाप्ति नहीं होनी चाहिए । वह अनन्तकाल पर्यन्त ऊर्ध्वगति ही निरन्तर करता रहना चाहिए । सिद्ध जीव को लोक के अग्रभाग पर स्थित क्यों स्वीकार किया गया है ? समाधान:-जीव और पुद्गल की गति का निमित्त धर्मास्तिकाय है । जैसे मछली की गति में जल सहायक होता है. रेलगाड़ी की गति में लोहे की पटरी सहा'यक होती है, इसी तरह जीव और पुद्गल की गति में धर्मास्तिकाय सहायक होता है। अतएव जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वही तक सिद्ध जीव की गति होती है, जहाँ धर्मास्तिकाय का अभाव है वहाँ गति नहीं होती। लोक और अलोक का नियम धर्मास्तिकाय है। जहाँ तक धर्मास्तिकाय है, उतने आकाश को लोक कहते हैं और धर्मास्तिकाय से शून्य आकाश अलोक कहलाता है इसी कारण सिद्ध जीव को लोक के अग्रभाग पर प्रतिष्ठित कहा गया है । तात्पर्य यह है कि जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक सिद्ध जीव गति करता है जहाँ धर्मा
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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