SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 756
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ '. मोक्ष-स्वरुप - छाया:-ज्ञानेन जानाति भावान, दर्शनेन च श्रद्धत्ते । चारित्रेण निगृहणाति, तपसा परिशुद्धति ॥ २०॥ 'शब्दार्थः-श्रात्मा ज्ञान से जीव आदि भावों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान करता है। चारित्र से नवीन कर्मों का आगमन राकता है और तप से निर्जरा करता है। .. भाष्यः-सम्यक्-ज्ञान आदि को मोक्षकारणता का निरूपण करके यहां उनके कार्य का व्याख्यान करते हुए उनकी उपयोगिता का वर्णन किया है। सम्यज्ञान से जीव श्रादि पदार्थों को श्रात्मा जानता है, सम्यग्दर्शन से उन पदार्थों के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धा करता है और चारित्र से नवीन कमों के श्रानव का निरोध करता है तथा तप से पूर्पबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। • यहां पर भीएकान्त जान से और एकान्त चारित्र से मोक्ष मानने वालों का निरास किया गया है। एकान्त ज्ञानवादी कहते हैं-केला जान ही मोक्ष-साधक होता है, क्रिया नहीं। अगर क्रिया को मोक्ष का कारण माना जाय तो. मिथ्याज्ञान पूर्वक की जाने वाली क्रिया से भी मोक्ष प्राप्त होना चाहिए। कहा भी है विनप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलाऽसंवाददर्शनात् ॥ अर्थात्-ज्ञान ही आत्मा को फलदायक होता है, क्रिया नहीं। अगर क्रिया फलदायक होती तो मिथ्याशान पूर्वक की जाने वाली क्रिया भी फलदायक-मोक्षप्रदहोती, क्योंकि वह क्रिया भी तो क्रिया ही है । __इसके विपरीत केवल क्रिया से मुक्ति मानने वाले ज्ञान को व्यर्थ बतलाते हैं। उनका कथन है: क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् ।। यतः स्त्रीभक्ष्यभोगझो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ अर्थात-क्रिया ही फलदायक होती है, शान फलदायक नहीं होता । स्त्री, भक्ष्य और भोग को जानने वाला पुरुष, सिर्फ जान लेने मात्र से ही सुखी नहीं हो सकता-स्त्री के ज्ञान मात्र से कोई तृप्त नहीं होता, भोजन को जान लेने से ही किसी की भूख नहीं मिटती और भौगोपभोगों का ज्ञान मात्र सन्तोष नहीं देता । अतएव ज्ञान व्यर्थ है और अकेली क्रिया ही अर्थसाधक है। . और भी कहा है:शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मुखो-यस्तु क्रियावान् पुरुपः स विद्वान् । संचिन्त्यताभौषधमातुरं हि, न बानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥ अर्थात्-शास्त्रों का अध्ययन करके भी लोग मूर्ख रहते हैं, दरअसल विद्वान वह है जो क्रियावान होता है। कोई भी औषधी, चाहे कितनी ही सोची-समझी हुई हो, केले जान लेने से नीरोगता प्रदान नहीं करती।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy