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________________ Namdomac-dece অষ্টাঃ । किया है।' इत्यादि विचार करके विनीत शिष्य को गुरु महाज का कथन अंगीकार करना चाहिए । श्रीगीकार करने से यहां यह अभिप्राय है कि अपना दोष स्वीकार फरने के साथ भविष्य में ऐलान करने के लिए गुरु के समक्ष अपना संकल्प प्रकट करना चाहिए। मूलः-हियं विगयमया वृद्धा, फरूसं पि अणुसासणं । वेसं तं होइ सूढाणं, खंतिसोहिकरं पयं ॥ ५ ॥ छाया.-हितं विगतमया पुन्हाः, परुपमप्यनु शासनम् । द्वेपं भवति मूढनां, शान्तिशुद्धिकरं पदम् ॥६॥ शब्दार्थ:--मय से अतीत और तत्त्वज्ञानी पुरुष गुरु के कठोर अनुशासन को भी अपने लिए हितकर मानते हैं और मूढ़ पुरुपों के लिए क्षमा एवं आत्मशुद्धि करने वाला ज्ञानरूप एक पद भी द्वेष का कारण बन जाता है। भाया-प्रस्तुत गाथा में विवेकवान् और मूढ़ शिष्य का अन्तर प्रतिपादन किया गया है। दोनों की मानसिक रूचि झा यहाँ चित्रण किया गया है। निर्भय और ज्ञानवान् शिष्य कठोर से कठोर गुरु के अनुशासन को भी अपने लिए हित रूप मानते हैं और सूद शिष्य क्षमायुक्त एवं श्रात्मशुद्धि जनक एक पद को भी द्वेष का कारण बना लेता है। अर्थात् गुरु द्वारा कोमल वचनों ले समझाय जाने पर भी मून शिप्य उनले देप करने लगता है। विवेकी शिष्य को यहाँ 'विनयभया' अर्थात् भय से मुक्त विशेषण दिया गया है, वह विशेष ध्यान देने योग्य है । अनादिकालीन अभ्यास के कारण इन्द्रियाँ विषयों की और से रोकने पर भी कभी-कभी उनमें प्रवृत्त हो जाती हैं. चंपल मन कभी-कभी असन्मार्ग में घसीट ले जाता है और किसी समय अज्ञान के कारण भी अकर्तव्य कर्म कर लिया जाता है। ऐसा होने के पश्चान कर्ता को अपनी भूल मालूम हो भी जाती है, पर संसार में अनेक ऐसे पुरुप हैं जो उस भूत को छिपाने का प्रयत्न करते हैं। एक भूल को छिपाने के लिए उन्हें मिथ्याभाषण, मायाचार आदि अनेक भूनें करनी पड़ती हैं। ऐसा करने का मुख्य कारण है-जीर्ति या प्रतिष्ठा के भंग हो जाने फा भय । लोक में मेरी मृल की प्रसिद्धि हो जायगी तो मेरी प्रतिष्टा चली जायर्ग मेरी अपकीर्ति होगी, इस प्रकार के मनः कल्पित भय से भनेक पुरुप भूल का संशोधन करने के बदले माल पर भूल करते जाते हैं। किन्तु ऐसा करने से फल विपरीत दी होता है। इस प्रकार का भय 'श्रात्मशुद्धि के मार्ग में अधिक होता है । इस भय का त्याग करके अपनी भूल को नन्ना के साथ स्वीकार करना चाहिए । हात्तर में इससे प्रतिष्ठा घटती नहीं बढ़ती है। यात्मिक शुद्धि के लिए भी ऐसा करना अत्यन्त लाय. श्यक है। यह बताने के लिए शासकार ने 'विगयभया' विशरण का प्रयोग किया है। निर्भय होकर अपने अपराध को स्वीकार कर लना और भविष्य में उससे
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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