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________________ । ६६२ । नरक-स्वर्ग-निरूपण (8) निष्क्रमण-निष्क्रमण का अर्थ है दीक्षा ग्रहण करना। अविरति रूप दुःख से छूट कर दीक्षा 'अंगीकार करना वास्तविक सुख का अद्वितीय साधन है। अतएव निष्क्रमण को सुखों में परिणित किया गया है। . (१०) अनाबाध सुख-श्राबाध अर्थात् जन्म, जरा, मरण आदि से रहित सुख अनाबाध सुख कहलाता है। इस प्रकार का सुख समस्त कर्मों से मुक्त होने पर प्राप्त होता है। कहा भी है " न वि अस्थि माणुलाणं, ते लोक्खं न वि य सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोफखं, अव्वाबाह' मुवगयाणं ॥ अर्थात् सब प्रकार से अव्याबाध को प्रात हुए सिद्ध भगवान् को जिस सुख की प्राप्ति होती है, वह सुख न तो मनुष्यों को प्राप्त होता है और न किसी भी देव को ही प्राप्त हो सकता है । वह मोक्ष-सुख अनुपम है, अनिर्वचनीय है, अतुल है और अटल है। . . . . अनावाध सुख, साक्षात देव भव से प्राप्त नहीं होता, किन्तु देवों को परम्परा से प्राप्त हो सका है। अतएव देवों के प्रकरण में भी उसका उल्लेख किया जाना असंगत नहीं है। . . . . मूलः-मित्तवं नाइवं होइ, ... उच्चगोये य वण्णवं । अप्पायं के महापरणे, अभिजाए जसोबेल ॥३३॥ छायाः-मित्रवान् ज्ञातिवान् भवति, उच्चैर्गानन वर्णवान् । . . . . . अल्पातको महाप्राज्ञः-अभिजातो यशस्वी वली ॥ ३३ ॥ शब्दार्थः-स्वर्ग से आनेवाला जीव मित्रवाला, कुटुम्बवाला, उच्चगोत्रबाला, कान्तिमान् , अल्प व्याधिवाला, महाप्राज्ञ, विनयशील, यशस्वी और बलशाली होता है। भाष्य:--शील का पालन करके स्वर्ग में गया हुश्रा जीव जब वहां से फिर मयुलोक में प्राता है, तब उसे निम्रलिखित विशेषताएँ प्राप्त होती है:--(१.) उसके अनेक हितैषी मित्र होते हैं । ( स्नेही कुटुम्वीजन मिलते हैं (३) वह लोक में प्रति. ठित समझे जाने वाले प्रसिद्ध कुल में जन्म ग्रहण करता है (४) वह दीप्तिमान होता है (५) उसके शरीर में कदाचित् ही कोई अल्प व्याधि होती है (६) वह तीव्र बुद्धि से विभूपित होता है (७) विनति होता है (८) लोक में उसकी कीर्ति का प्रसार होता है और (६) वह विशिष्ट बल से सम्पन्न होता है। :: .....
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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