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________________ । ६५२ 1 নং-না-নিক ... मूल:-कप्पोवगा बारसहा, सोहम्मीसाणगा तहा । सणंकुमार माहिंदा, बंभलोगा य लंतगा ॥२०॥ महासुक्का सहस्सारा, प्राणया पाणया तहा। प्रारणा अच्चुया चेव, इइ कप्पोवगा सुरा ॥ २१ ॥ छाया:-कल्पोपगा द्वादशधा, सौधर्मेशानगास्तथा। सनत्कुमारा माहेन्द्राः, ब्रह्मलोकाश्च लान्तकाः ॥२०॥ महाशुक्राः सहस्राराः, श्रानताः प्राणतास्तथा । श्रारणा अच्युताश्चैव, इति कल्पोपगाः सुराः ॥२१॥ . शब्दार्थः-कल्पोत्पन्न या कल्पोपपन्न देवों के बारह भेद हैं--(१) सौधर्म (२) ईशान (३) सनत्कुमार (४) महेन्द्र (५) ब्रह्म (६) लान्तक (७) महाशुक्र (८) सहस्रार (६) आनत (१०) प्राणत (११) पारण और (१२) अच्युत । भाष्या-कल्पोपपन्न वैमानिक देव अपने निवास स्थान की अपेक्षा बारह प्रकार के होते हैं। शनैश्वर के विमान से डेढ़ राजू ऊपर, जम्बूद्वीप के सुमेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में पहला सौधर्म देवलोक है और उत्तर दिशा में दूसरा ऐशान देवलोक है । इन . दोनों देवलोकों में तेरह तेरह प्रतर हैं। उनमें पांच-पांच सौ योजन ऊंचे और सत्ताईस-सत्ताईस लौ योजन की नींव वाले ३२००००० विमान पहले देवलोक में और २८००००० विमान दूसरे देवलोक में हैं। पहले देवलोक का इन्द्र शुक्रेन्द्र या. सौधर्मेन्द्र कहलाता है और दूसरे का ऐशानेन्द्र । इन दोनों देवलोकों के ऊपर दक्षिण दिशा में तीसरा सनत्कुमार और उत्तर दिशा में चौथा महेन्द्र नामक देवलोक है। इन दोनों देवलोकों में चारह-बारह प्रतर मंजिल हैं, जिनमें छह-छह सौ योजन के ऊंचे और छब्बीस-छब्बीस सौ योजन की नींव वाले तीसरे देवलोक में १२००००० विमान हैं और चौथे देवलोक में २०१००० विमान हैं। इनके ऊपर मेरु पर्वत के ठीक मध्य में ब्रह्म नामक पांचवां स्वर्ग है। उसके छह प्रतर है। उसमें सात सौ योजन ऊंचे और २५०० योजन नींव वाले ४०००० विमान हैं। इस स्वर्ग के तीसरे प्रतर के पास, दक्षिण दिशा,पाठ कृष्ण राजियां हैं। इनके अंतराल में आठ विमान हैं और पाठविमानों के बीच एक और विमान है। इस प्रकार नौ विमानों में नौ लोकान्तिक जाति के देवों का निवास है। अर्चि नामक विमान में सारस्वत नामक लोकान्तिक रहते हैं, अचिमाली नामक विमानमें श्रादित्य नामक देव रहते हैं, वैरोचन विमान में वह्नि नामक देव रहते हैं, प्रशंकर विमान में वरुण, चन्द्राय विमान में गर्द। तोय, सूर्याभ विमान में तुपित, शकाम विमान में अन्यायाध, सुप्रतिष्ठित विमान में अग्नि देव, और अरिष्टाभ विमान में अरिष्ट देव रहते हैं।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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