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________________ नरक-स्वर्ग-निरूपण । ६४३ ] शास्त्रकार ने पहले प्रश्न का इस गाथा में प्रत्यक्ष रूप से समाधान किया है। नरक का वर्णन करने का उद्देश्य यह है कि लोग नरक का वास्तविक स्वरूप समझ कर उसके प्रत्येक कारण से बचने का प्रयत्न करें । इसीलिए कहा है-'एयाणि सोचा गरगाणि धीरे, न हिंलए किंचण सव्वलोए ।' अर्थात् नरक का स्वरूप समझ कर बुद्धिमान, पुरुष को हिंसा का त्याग कर देना चाहिए । जब तक वस्तु का स्वरूप जाना नहीं जाता तब तक उसका ग्रहण या त्याग नहीं किया जा सकता। अगर नरक का स्वरूप न बतलाया जाय तो लोग उससे बचने का प्रयत्न नहीं कर सकते और परिणाम यह होगा कि नरक गति के कारणों की अर्थात् हिंसा, परिग्रह आदि की प्रचुरता लोक में हो जायगी। नरक के वर्णन से श्रोता में मानसिक दुर्बलता नहीं आती है, यह कहना निराधार है। अगर नरक की प्राप्ति प्रत्येक प्राणी के लिए अनिवार्य होती तो कदाचित् मानसिक दुर्बलता उत्पन्न होने की आशंका की जा सकती थी। पर यहां तो नरक के वर्णन के साथ यह भी स्पष्ट कर दिया जाता है कि हिंसा आदि पाप-कर्म करने वालों को ही नरक गति में जाना पड़ता है । धर्म, पुण्य, संयम एवं सदार का अनुष्ठान करने वाले नरक में नहीं जाते । ऐसी स्थिति में लोग अधर्म का त्याग करके नरक से निर्भय हो सकते हैं उनमें मानसिक दुर्बलता उत्पन्न होने का कोई कारण ही नहीं है। नरक गति के अस्तित्व पर आशंका करने वाले लोग अपने पैर पर कुठाराघात फरते हैं। श्रख मींच लेने से आसपास के पदार्थों का अभाव नहीं हो जाता, इसी प्रकार नरक को अस्वीकार कर देने मात्र से नरक का अस्तित्व नहीं मिट सकता। नरक को अमान्य कह कर जो लोग पापों के प्रति निर्भय हो जाना चाहते हैं वे पर लोक को ही नहीं, इस लोक को भी विगाड़ते हैं। वे स्वयं पापों में प्रवृत्त होते हैं और अन्यों को भी पाप में प्रवृत्त करते हैं। इससे संसार में हिंसा का ताण्डव होता है और अमर्यादित परिग्रह शीलता बढ़ती है। नरक का अस्तित्व स्वीकार करके पापों से पराङ्मुख हो कर सदाचार में रत रहने वालों का कल्याण ही होगा। नरक को स्वीकार करने से हानि कुछ भी नहीं दो सकती। मगर जो लोग नरक को स्वीकार नहीं करते, उन्हें क्या लाभ होगा १ चे पाप कर्म में निमग्न होकर अपना अहित करेंगे और दूसरों के समक्ष भी पित आदर्श उपस्थित करेंगे। इस प्रकार नरक गति का अस्तित्व स्वीकार करना कल्याण कारीही है और उसका अस्तित्व न मानना एकान्ततः अहितकर है। अतएव नरक गति के संबंध में किसी प्रकार की फुशंका न करके नरक के कारणों से बचने का ही प्रयत करना चाहिए । इसी में आत्मा का कल्याण है, इसी में जगत् का फल्याण है। इसी से वर्तमान जीवन की शुद्धि होती है और इसी भावना से आगामी जीवन विशुद्ध बनता है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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