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________________ [ १६ ] पद्रव्य निरूपण वाह्य शरीर को कष्ट देने से श्रान्तरिक मलीनता नष्ट नहीं हो सकती । श्रतएव जिल कष्ट-सहन से श्रात्मा के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह कष्ट सहन वाल-तप हैं और बाल-तप संसार का ही कारण होता है । उसले अक्षय श्रात्यन्तिक प्रात्मिक सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसी कारण यहां आत्म-दमन का उपदेश दियागया है । कुछ लोग, जो श्रात्मा को नित्य नहीं मानते, यह कहते हैं कि परलोक का अस्तित्व ही नहीं है । अर्थात् शरीर से भिन्न, भवान्तर में जाने वाला श्रात्मा पदार्थ नहीं है । जैसे जल का बुलबुला जल से भिन्न नहीं है उसी प्रकार शरीर से भिन्न श्रात्मा नहीं है। जैसे केले की डाल के छिलके उतारते जाइए, तो छिलके ही छिल के अन्त तक निकलते हैं भीतर कोई सारभूत पदार्थ नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के भीतर सारभूत आत्मा पदार्थ नहीं है । कहा भी है 35 भस्मी भूतस्य देहस्थ पुनरागमनं कुतः ? अर्थात् शरीर भस्म हो जाता है - शरीर के अतिरिक्त और कोई वस्तु ऐसी नहीं है जो पुनः जन्म धारण करती हो । इस प्रकार इसी लोक में श्रात्मा को सीमित मानने वाले तथा श्रनात्मवादी लोग परलोक के अस्तित्व को अंगीकार नहीं करते । किन्तु वे स्वयं अन्धकार के गर्त में गिरते हैं और दूसरों को भी अपने साथ ले जाते हैं । वे समझते हैं, परलोक का अस्तित्व स्वीकार कर देने से परलोक सम्बन्धी दुःखों से छुटकारा मिल जायगा, किन्तु ऐसा होना असंभव है। आँख मीचकर अग्नि का स्पर्श करने से क्या अग्नि जलाएगी नहीं ? पहले आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध किया जा चुका है । जब आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है तो उसका विनाश कदापि नहीं हो सकता | विज्ञान और समस्त दर्शन शास्त्र एकमत होकर यह स्वीकार करते हैं कि सत् का विनाश और असत् का उत्पादक कभी नहीं होता । अतएव यह भी सिद्ध है कि श्रात्मा का कदापि विनाश नहीं हो सकता और जब आत्मा अविनश्वर है तो वह एक भय जन्म को त्याग कर दूसरे भव में अवश्य जाता है । इस नवीन भव में गमन करने को ही परलोक कहा जाता है, इसलिए परलोक का अस्तित्व अवश्य 1 इस प्रकार शास्त्रकार ने उचित ही कहा है कि शरीर मात्र का या अन्य पुरुषों का दमन करने से वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं होती, वरन् श्रात्मा का दमन करने से ही इस लोक में और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है । सुख के इस पथ पर चलना सरल कार्य नहीं है । इंद्रियों के वशीभूत होकर आत्मा में इतनी उच्छृंखलता श्रागई है कि वह सन्मार्ग पर न चलकर कुमार्ग की और ही दौड़ता है। श्रात्मा यद्यपि अनन्त शक्ति से सम्पन्न ज्योतिपुंज है फिर भी इंद्रियों
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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