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________________ संत्तरहवां अध्याय [ ६३६ ] लोहे का पिंड भी पिघल सकता और विखर सकता है। प्रथम, द्वितीय और तृतीय नरक में गर्मी की वेदना होती है और शेष नरकों में सर्दी की वेदना । जिस नरक में गर्मी की वेदना है वहां के नारकी को उठाकर अगर जलती हुई भट्ठी में डाल दिये जाय तो उसे बड़ा आराम मिले और उसे निद्रा श्रा जाय । इसी प्रकार शीत वेदना वाले नरक के नारकी को उठाकर अगर हिमालय के हिम पर सुलादिया जाय तो वह श्रानन्द का अनुभव करेगा । इससे नरक के शीत-औपण्य की कल्पना की जा सकती है। नरक में क्षुधा और तृषा अर्थात् भूख-प्यास को भी ऐसा ही कष्ट भुगतना पड़ता है। भूख इतनी अधिक लगती है कि तीन लोक में जितने खाद्य पदार्थ हैं उन सब को ना लेने पर भी तृप्ति न हो, पर नारकियों को मिलता एक दाना भी नहीं है। इसी प्रकार जगत् के समस्त समुद्रों का जल एक नारकी को दिया जाय तो भी उसकी प्यास नहीं वुझे, इतनी अधिक प्यास उसे लगती है । मगर जब नारकी पानी की याचना करता है तो परमाधार्मिक असुर पिघला हुआ गर्म शीशा उसे पिलाते हैं नारकी कहता है-बस रहने दीजिए, मुझे प्यास.नहीं रही, मगर वे जबदस्ती मुँह फाड़कर गर्मागर्म शीशा उड़ेल देते हैं । । नारकी जीवों को अत्यन्त भय का भी सामना करना पड़ता है। नरक का स्थान घोर अन्धकार से परिपूर्ण है। अंधकार इतना सघन है कि करोड़ों सूर्य मिलकर भी उस स्थान को प्रकाशमान नहीं कर सकते । नारकी जीवों का शरीर भी अत्यन्त कृष्णवर्ण शोर महा विकराल होता हैं । तिस पर वहां ऐसा हो-हल्ला मचा रहता है, जैसे किसी नगर में आग लगने पर मचता है परमाधार्मिकों की तर्जना और ताड़ाना से, तथा ' इसे मारो, इसे काटो, इसे पकड़ो, इसे छेद डालो, इसे भेद डालो, इसे फाड़ कर फेंकदो' इत्यादि भयंकर शब्दों से नरक का वातावरण निरन्तर भय से परिपूर्ण बना रहता है कौन नारकी या परभाधार्मिक, किस समय, क्या यातना देगा इस विचार से भी नारकी सदा त्रस्त रहते हैं । इन कारणों से नारकी जीवों को अनन्त भय का कष्ट भोगना पड़ता है। यहां क्षेमजा वेदना पांच प्रकार की क्तलाई गई है । वह उपलक्षण मात्र है। उससे पांच प्रकार की अन्य वेदनाओं का भी अहण करना चाहिए । जैसे-~-अनन्त महाज्वर, अनन्त खुजली, अनन्त रोग, अनन्त अनाश्रय और अनन्त महाशोक । नारकी जीवों के शरीर में सदैव महाश्वर बना रहता है और उससे उनकी शरीर में तीव जलन बनी रहती है। उनके शरीर में खुजली भी इतनी अधिक होती है कि वे हमेशा अपना शरीर अपने ही हाथों खुजलाते रहते हैं। उनके शरीर में जलोदर, भगंदर खांसी, श्वास, फोढ़, शूल श्रादि सोलद बड़े बड़े रोग और अनेकों छोटे-छोटे रोग बने रहते हैं । इन पापी जीवों को कोई श्राश्रय देने वाला नहीं होता । तनिक भी सान्त्वना किसी से उन्हें नीं मिलती। व्यंग से उनका द्रदय दुग्नी
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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