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________________ [ ६३० नरक-स्वर्ग-निरूपण्ड स्परिका (२) श्रासुरी और ( ३ ) क्षेत्रजा । नारकी के जीव विभंग ज्ञान के द्वारा दूर से ही अपने पूर्वभव के बैरी को जान कर अथवा सीप में एक दूसरे को देख कर भाग बबूला हो जाते हैं। उनकी क्रोधानिसहसा भड़क उठती है । तत्पश्चात् वे अपनी ही विक्रिया से तलवार, फरसा आदि अनेक प्रकार के शस्त्र बनाकर एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं। इतना ही नहीं, वे अपने हाथों से, पैशेले, दांतों से भी आपस में छेदन-भेदन करते हैं । इससे उन्हें असीम कष्ट होता है । इस प्रकार का व्यापार निरन्तर जारी रहता है । यह वेदना पास्परिक वेदना कहलाती है। दूसरी वेदना कासुरी है। परमाधामी असुर जाति में देवता तीसरे नरक तक जाते हैं और वे नारकी जीवों को घोर यातना पहुंचाते हैं। नरक रूप क्षेत्र के. कारण से उत्पन्न होनेवाली वेदना क्षेत्रजा वेदना कहलाती है। __ इस प्रकार की वेदनाओं को सहन करने पर भी लारकी जीवों की अकालमृत्यु नहीं होती, क्योंकि व अनपवर्त्य भायु वाले होते हैं। उन्हें अपनी परिपूर्ण श्रायु भोगनी ही पड़ती है। पहले रत्नप्रक्षा नरक में उत्कृष्ट (अधिक से अधिक ) आयु एक प्लागरोपम की है । शर्करा प्रभा में तीन लागरोठम झी, बालुका प्रभा में सात सागरोफस की, पंकप्रभा में दस सागरोपम की, धूमप्रभा में सतरह सगरोपम की तमप्रभा में बाईस सामरोपम की और तमतमा प्रसा में तेतील सागरोपम की उत्कृष्ट आयु है। पहले नरक में ( कम से कम ) छायु दल हजार वर्ष की है। तत्पश्चात पहले-पहले नरक की उत्कृष्ट श्रायु का जितना परिमारा है, अगले-अगले नरक की जघन्य आय का वही परिमारण है ! अर्थात् दूसरे नरक की जघन्य आयु एक सागरोपम तीसरे नरक की तीन सागरोउम इत्यादि। - नरक गति में कौन जीव, किस कारण से जाते हैं और उनकी वहां कैसी दुर्दशा होती हैं, यह शासकार स्वयं भागे निरूपण करते हैं। मूलः-जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, ... पावाई कम्माई करेंति रुद्धा। . ते घोररूवे तमिसंधयारे, तिव्वाभितावे नरए पडंति ॥ ३ ॥ ठाया:-ये केऽपि वाला इह जीवितार्थिनः, पापानि कर्माणि कुर्वन्ति द्धाः। ते घोररूपे तमिस्त्रान्धकारे, तीव्राभिताधे नरके पतन्ति ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:-इस संसार में कितनेक अज्ञानी र पुरुष अपने जीवन के लिए पाप कर करते हैं, वे अतीव भयानक, अत्यन्त अन्धकार से युक्त और तीव्र संताप वाले नरक में जाकर गिरते हैं।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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