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________________ सोलहवां अध्याय [ ६२५ ] ___ हायाः-यः समः सर्व भूतेषु, सेघु स्थावरे पु च । तस्य सामायिकं भवति, इति केवलि भाषितम् ॥ १६ ॥ शब्दार्थ:-जो पुरुष त्रस और स्थावर रूपी सभी प्राणियों में समभाव रखता है, उसीके सामायिक होती है, ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा है। भाज्य:-श्रावश्यक क्रिया में सामायिक प्रधान है। सामायिक लाध्य है, शेष क्रियाएँ साधन हैं । अतएव उसकी सहता प्रदर्शित करने के लिए यहां सामायिक का पृथक निरूपण किया गया है। जो पुरुष त्रस अर्थात द्वीन्द्रिय, जीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिव जीवों पर तथा स्थावर अर्थात् एकेन्द्रिय वनस्पतिकाय श्रादि प्राणियों पर लमभाव रखता है, उसी प्रकार की लाायिक सच्ची सामायिक हैं। केवली भगवान ने ऐसा कथन किया है। ___ सामायिक शब्द का अर्थ बतलाते हुए पहले कहा जा चुका है कि जिस किया ले समभाव की प्राप्ति होती है, उसे सामायिक कहते हैं । किन्तु समभाव का साधार क्या है ? समसाव किस पर होना चाहिए ? इस प्रश्न का स्पष्टीकरण यहां किया गया है । जगत् के समस्त जीर बल और स्थावर-इन दो श्रेणियों में समाविष्ट हो जाते हैं। उन पर समभाव रखना अर्थात प्राणिमात्र पर लमभाव रखना कहलाता है। तात्पर्य यह है कि अपने ऊपर जैसी भावना रहती है, वैसी ही भावना अन्य प्राणियों पर रहनी चाहिए । हमें लुख प्रिय है, तो दूसरों को भी सुख प्रिय है। हमारे सुख-साधनों का अपहरण होना हमें रुचिकर नहीं है तो अन्य प्राणियों को भी उनके सुख साधनों का विनाश रुचिकर नहीं है। जैसे हम अपने सुख के लिए प्रयास करते हैं, उसी प्रकार अन्य प्राणी सी अपने-अपने सुख के लिए निरन्तर उद्योगशील रहते हैं। दुःख और दुःख की सामग्री से हम बचना चाहते हैं, दुःख हमें अनिष्ट है और दुःख पहुंचाने वाले को हम अच्छा नहीं मानते, इसी प्रकार अन्य प्राणी भी दुःख से और दुःख की लामन्त्री ले बचना चाहते हैं। उन्हें जो कष्ट पहुंचाता है उसे वे भी अच्छा नहीं मानते । इसी प्रकार जैसे हमें जीवन प्रिय और मरण अप्रिय है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीवन प्रिय और सरण अप्रिय है। जब कोई कर पुरुप हमारा जीवन नष्ट करने पर उतारू होता है तब हमारे अन्तःकरण में उसके प्रति जैसी भावना उत्पन्न होती है, ठीक इसी प्रकार की भावना अन्य प्राणियों के हृदय में भी उनके हिंसक के प्रति उत्पन्न होती हैं । अपने लिए कठोर एवं मर्मवेधी वाक्य सुनने से हम असाता अनुभव करते हैं, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी साता का अनुभव होता है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्राणी का सुख-दुःख समान है। अतएव प्रत्येक प्राणी को दूसरे प्राणी के साथ पैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा पE अपने प्रति करता है अथवा अपने लिए अभीष्ट समझता है। यह समभाव है। प्रस और स्थावर जीवों पर समभाव धारण करने पर अधिकांश में राग-द्वेष रूप परिणति में न्यूनता था जाती है । विपम-भाव का विष समता रूप सुधा के
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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