SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 668
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ६१२ ] श्रावश्यक कृत्य जनक नरक में जन्म लेते हैं और श्रार्य अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा प्ररूपित धर्म का सेवन करने वाले स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । शास्त्रकार ने अधर्म और धर्म के फल की प्ररूपणा करके परलोक का.. भी विधान कर दिया है और धर्म सेवन की महिमा का भी कथन कर दिया है । इस गाथा से यह अभिप्राय भी निकलता है कि आत्मा सदा एक ही स्थिति में नहीं रहता। जो श्रात्मा एक बार अधर्म के फलस्वरूप नरक का अतिथि बनता है, वही दूसरे समय, धर्म का सेवन करके स्वर्ग का अधिकारी वन जाता है । अतएव जो लोग आत्मा को सदैव एक ही स्थिति में रहना स्वीकार करते हैं, उनकी मान्यता भ्रमपूर्ण है । लदा एक ही स्थिति में रहने से पुण्य-पाप या धर्म-अधर्म के फल का उपभोग नहीं बन सकता । इस स्थिति में धर्म का आचरण करना निष्फल होजाता है। शास्त्रकार के इस विधान से यह भी फलित होता है कि आत्मा ही कर्त्ता हैं और वही स्वयं कर्म के फल का भोला है । आत्मा में दैवी और नारकीय दोनों अवस्थानों को अपनाने की शक्ति विद्यमान है । वह जिस अवस्था को ग्रहण करना चाहे, उसी के अनुसार व्यवहार करे। मनुष्य एक चौराहे पर खड़ा है । चारों ओर मार्ग जाते हैं । उसकी जिस ओर जाने की अभिलाषा हो वही मार्ग वह पकड़ सकता है । मनुष्य को यह महा दुर्लभ अवसर मिला है । एक क्षण का भी इस समय बड़ा मूल्य है । भव्य जीवों ! इसका सदुपयोग करो और अक्षय कल्याण के पात्र वनों । मूल:--बहु आगमविण्णापा, समाहि उप्पायगा य गुणगाही । काररेणं, रिहा आलोयणं सोउं ॥ १३ ॥ छाया:- वह वागमविज्ञाना, समाध्युत्पादकाश्र्व गुणग्राहिणः । एतेन कारणेन, अही थालोचनां श्रोतुम ॥ १३ ॥ एएप शब्दार्थ:- जो बहुत आगमों के ज्ञाता होते हैं, कहने वाले अर्थात् अपने दोषों को प्रकट करने वाले को समाधि उत्पन्न करने वाले होते हैं, और जो गुणग्राही होते हैं, वही इन गुणों के कारण आलोचना सुनने के योग्य अधिकारी है । चिना भाष्यः - लगे हुए दोषों का स्मरण करके उनके लिए पश्चाताप करना आलीहै । आलोचना अगर गुरु के समक्ष की जाती है, तो उसका महत्व अधिक होता है । गुरु के समीप निष्कपट बुद्धि से, अपने दोष को निवेदन करने से हृदय में. वल श्राता है और भविष्य में उस दोष से बचने का अधिक ध्यान रहता है । श्रालोन ना किस योग्यता वाले के सामने करनी चाहिए, यह यहां स्पष्ट किया गया है । जो विविध शास्त्रों का वेत्ता हो, जिसे आलोचना करने वाले के प्रति सहानु
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy