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________________ [५६६ ] ...' मनोनिग्रह जाते हैं, भयभीत हो जाते हैं उन्हें या तो उन्माद हो जाता है या चिरस्थायी कोई अन्य रोग हो जाता है और वे जिन मार्ग से च्युत हो जाते हैं। ::. इस प्रकार बारह प्रतिमाएँ कायक्लेश तप के अन्तर्गत हैं । केशों का लुंचन करना, पैदल विचरना, परीषह सहन करना, स्नान न करना, शरीर का मैल न उता। रना, आदि-आदि श्री कायक्लेश के ही अन्तर्गत है। (६) संलीनता-सलीनता तप को प्रतिसलीनता भी कहा जाता है । इसके । बार भेद हैं--(१) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, (२) कषाय प्रतिसंलीनता (३) योगप्रतिसंलीनता और ( ४ ) शयनासन प्रतिसंलीनता। श्रानव के जो कारण पहले बतलाये जा चुके हैं उनका निग्रह करना प्रति. सलीनता तप कहलाता है। राग-द्वेष की उत्पत्ति करने वाले शब्दों के श्रवण से कानों को रोकना, विकारजनक रूप को देखने से नेत्रों को रोकना, गंध से घ्राणन्द्रिय को रोकना श्रोर रससे जिला को रोकना एवं स्पर्श से स्पर्शनेन्द्रिय को रोकना इन्द्रिय. प्रतिसंलीनता तप है। . क्षमा भाव की प्रबलता से क्रोध को शान्त करना, नम्रता धारण करके अभि. मान का त्याग करना, सरलता से माया को हटाना शौर, सन्तोष की वृत्ति से लोभ का परिहार करना कषाय प्रतिसलीनता तप है। असत्य मनोयोग और मिश्र मनोयोग का निग्रह करके व्यवहार मनोयोग की ही प्रवृत्ति करना, इसी प्रकार सत्य योग की प्रवृत्ति करना एवं असत्य तथा मिश्र धचन योग का निग्रह करना, औदारिक, औदारिफ मिश्र, वैक्रिय योग, वैक्रिय मिश्र श्राहारक योग, आहारक मिथयोग, और कार्मण योग-इन काय के सात योगों की अशुभ प्रवृत्ति रोक कर शुभ प्रवृत्ति करना योग प्रतिसंलीनता तप है। .. वाटिका, बगीचा, उद्यान, यक्षादि देवों का स्थान हो, हाट, दुकान, हवेली, . उपाश्रय, गुफा श्मशान में किसी वृक्ष के नीचे, जहां स्त्री, पशु और नपंशक का जोग हो, एक रात या यथेष्ट समयतंक रहना शयनासन प्रतिसंलीनता तप कहलाता है। मूलः-पायच्छित्तं विणो, वेयावच्चं तहेव सज्झायो। माणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो ॥१३॥ छाया:-प्रायश्चिचं विनयः, बैयावृत्यं तथैव स्वाध्यायः । __ ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः ॥ १३ ॥ शब्दार्थः-आभ्यन्तर तप छह प्रकार के हैं:-(१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वयावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग। भाष्यः बाह्य तपी का स्वरूप बतलाने के पश्चात् क्रमप्राप्त प्राभ्यन्तर तपों के नामों का यहां उल्लेख किया गया है। याह्य तपों से मुख्य रूप से इन्द्रियों का दमन होता है और प्राभ्यन्तर तप मन के निग्रह के कारण भूत हैं । प्रास्यन्तर
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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