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________________ पन्द्रहवां अध्याय ध्यान रखना चाहिए कि यावत्कथिक अनशन विशेष अवस्था में ही किया जाता है। प्राणहारी उपसर्ग आने पर, असाध्य रोग के कारण मृत्यु का निश्चय हो जाने पर या ऐसी ही किसी अन्य विशेष अवस्था में जीवनपर्यन्त अनशन किया जाता है। (२) ऊनोदरी त--आहार, उपधि और कपाय की न्यूनता करना ऊनोदरी तप है। ऊनोदरी तप दो प्रकार का है (१) द्रव्य ऊनोदरी और ( २ ) भाव ऊनोदरी द्रव्य ऊनोदरी के तीन भेद हैं । ( १ ) ममत्व घटाने के लिए, शानध्यान, में वृद्धि करने के लिए और सुखपूर्वक विहार करने के लिए वस्त्रों और पात्रों की कमी करना उपकरण-उनोदरी तप है। पुरुष का यूग शाहार वत्तील कवल का है उनमें से सिर्फ पाठ कवल ग्रहण करके संतोष करना पाव उनोदरी है । सोलह ग्रास ग्रहण कर संतुष्ट रहना अर्थ ऊनोदरी है और चार कवल ग्रहण करना अध-पाव-ऊनोदरी है । बत्तीस में से एकदो कम कवल ग्रहण करना किञ्चित ऊनोदरी तप है। "अट्ठकुक्कुडि अंडगमेत्तघमाणे कवले शाहारमाणे अप्पाहारे दुवालसकवलेहि अवड्ढोमोयरिया, सोलसहिं दुभागे पत्ते, चउवीसं प्रोमोदरिया, तीसं पमाण पत्ते, बत्तीसं कवला संपुरणाहारे।" अर्थात मुर्गी के अन्डे के बराबर पाठ कवल का आहार करना अल्पाहार करना कहलाता है। बारह कवल का श्राहार करना अपाधं ऊनोदरी है। सोलह कवल का श्राहार करना अर्घ ऊनोदरी है। तीस कवल का आहार प्रमाण प्राप्त श्राहार कहा लाता है और बत्तीस कवल खाना सम्पूर्ण आहार है। ऊनोदर तप से अनेक लाभ हैं। अल्प श्राहार से आलस्य अधिक नहीं पाता, शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा होती है और बुद्धि का भी विकास होता है। ऊपर के कथन से यह न समझना चाहिए यह क्रम सिर्फ साधु के लिए है। ध्यावाहारिक और पारमार्थिक दोपों का निराकरण करने के लिए पृहस्थों को भी इस तपस्या को अंगीकार करना चाहिए । अन्यान्य तपों के विषय में भी यही बात है। क्रोध, मान, माया और लोभ को न्यून करना भाव-ऊनादरी तप कहलाता है। आत्म सिद्धि के लिए ऊनोदरी तप की महान् उपयोगिता है । श्रतएच साधु और श्रावक-दोनों को यथा शक्ति इस तप का पालन करना चाहिए। (३) भिक्षा चर्या तप--अनेक घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेकर इससे शरीर का निर्वाह करना भिक्षाचरी तप है। इसी को भिक्षाचर्या भी कहते हैं। जैसे गृहस्थ द्वारा अपने उपभोग के लिए बनाये हुए उद्यान में अचानक पा. फर भ्रमर, थोड़ा-थोड़ा अनेक फूलों का रस ग्रहण करता है। ऐसा करने से फलों का रस समाप्त नहीं हो जाता है और भ्रमर का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। इसी सकार गृहस्थ ने अपने उद्देश्य से जो भोजन बनाया हो, उसमें से थोड़ा-सा अाहार
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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