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________________ - - [ ५५६ भनोनिग्रह करना चाहिए । अग्नि की यह ज्वाला क्रमशः बढ़ती-बढ़ती ऊपर वाले कमल पर स्थित पाठ कर्मों को जलाने लगती है, ऐसा विचार करना चाहिए। तदनन्तर वह प्वाला कमल के मध्य में छद करके ऊपर मस्तक तक आजाए और उसकी एक रेखा बाई ओर.और दूसरी रेखा दाहिनी और निकलजाए फिर नीचे की तरफ पाकर दोनों कानों को मिलाकर एक अनिमयी रेखा वन जाय। अर्थात् ऐसा विचार करे कि अपने शरीर के बाहर तीन कोण वाला अग्निमंडल हो गया। इन तीनों लकीरों में प्रत्येक में, 'र' अक्षर लिखा हुश्रा विचारे अर्थात तीनों तरफ 'र' अक्षरों से ही यह अग्निमंडल बना हुआ है। इसके अनन्तर त्रिकोण के चाहर, तीन कोनों पर स्वस्तिक अग्निमय लिखा हुश्रा तथा भीतर तीन कोनों में प्रत्येक पर 'ॐ' ऐसा अग्निमय लिखा हुश्रा सोचे। तब यह विचारना चाहिए कि यह अग्निमंडल भीतर पाठ कर्मों को जला रहा है और बाहर इस शरीर को भस्म कर रहा है । जलते-जलते समस्त कर्म और शरीर राख हो गये हैं, तब अग्नि धीरे-धीरे शान्त हो गई है। इस प्रकार विचारना आग्नेयी धारणा है। (३) वायु धारणा-वायु धारणा को मारुती धारणा भी कहते हैं। आग्नेयी धारणा का चिन्तन करके ध्यानी पुरुष इस प्रकार विचार करे-चारों ओर बड़े वेग के साथ पवन बह रही है। मेरे चारों ओर वायु ने गोल मंडल बना लिया है। उस . में आठ जगह घेरे में 'स्वाय 'स्वाय' सफेद रंग का लिखा हुआ है। वह वायु की की तथा शरीर की रात को उड़ा रही है और आत्मा को साफ कर रही है। इस प्रकार का चिन्तन करना वायु-धारणा है। (४) वारुणी धारणा-वारुणी धारणा का अर्थ है जल का विचार करना है घद्दी ध्यानी वही वायुधारणा के पश्चात् इस प्रकार का चिन्तन करे-श्राकाश में मेघों के समूह श्श्रा गये हैं । विजली चमकने लगी है। मेघ गर्जना हो रही है और मुसलधार पानी परसने लगा है। मैं बीच में चैठा हूँ। मेरे ऊपर अर्द्ध चन्द्राकार पानी का मंडल है तथा जल के वीजाक्षरों से पपपप लिखा हुआ है। यह जल मेरे प्रात्मा पर लगे हुए मैल कोरास को साफ कर रहा है । श्रात्मा चिल्कुल पवित्र बनता जा रहा है। (५) तत्वरूपवती धारणा-इस धारणा को तत्रभूधारणा भी कहते हैं। वारुणी धारणा के पश्चात् इस प्रकार विचार करना चाहिए-अब मैं सिद्ध के समान सर्वश. वीतराग, निर्मल, निष्कलंक, निष्कर्म हो गया है। मैं पूर्ण चन्द्रमा के समान देदीप्यमान ज्योति पुंज हूँ।' इस प्रकार विचार करना तत्त्वरूपवती धारणा है। इस प्रकार पूर्वोक्त कम से पांचों धारणाओं का चिन्तन करने से शात्मा तेज. स्वी और विशुद्ध बनता है ! (२) पदस्यध्यान -ऊपरबतलाया जा चुका है कि किसी पवित्र पद का प्रवलस्पन करके जो ध्यान किया जाता है वद पदस्थ ध्यान कहलाता है उसके प्रकार इल तरह है
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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