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________________ भ्रथम अध्याय [ ७ ] पूर्णिमा का चन्द्र दिखाई दे तो अन्य सब में भी पूर्णिमा का ही चन्द्र दृष्टिगोचर होगा। किसी ग्लास में पूर्णिमा का और किसी में द्वितीया का चन्द्र दिखाई नहीं देता। आत्मा अगर चन्द्रमा की भांति एक होता तो वह भी समस्त शरीरों में एक सरीखा प्रतीत होता; किन्तु ऐसा नहीं होता। इससे जल-चन्द्र का उदाहरण विषम है और इससे अात्माओं की एकता सिद्ध नहीं होती। यदि श्रात्मा एक ही हो तो किसी एक प्राणी के द्वारा पाप कर्म का आचरण . करने से सभी को दुःख भोगना पड़ेगा और दूसरा यदि तपश्चर्या, सेवा, परोपकार आदि शुभ कार्य करेगा तो उससे सभी सुखी हो जाएँगे । अथवा एक ही समय में स्वर्ग के सुख और नरक के दुःख भोगने पड़ेंगे। लेकिन न तो कभी संसार के समस्त प्राणी एक-सा सुख भोगते हैं, न एक-सा दुःख भोगते हैं और न एक साथ स्वर्गनरक जैसी विरोधी पर्यायों का ही अनुभव करते है। इसलिए आत्मा को सर्वथा एक मानना उचित नहीं है। वैशेपिक मत के अनुयायी आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं, वह भी भ्रमपूर्ण है। जहां जिस वस्तु का गुण होता है वहीं उस वस्तु का अस्तित्व मानना उचित है। आत्मा के गुण सुख, दुःख, चैतन्य आदि शरीर में ही पाये जाते हैं। शरीर से बाहर उनकी प्राति नहीं होती अतएव शरीर से बाहर उनकी सत्ता नहीं स्वीकार की जा सकती । शरीर में सुई चुभाने से वेदना होती है और शरीर के बाहर श्राकाश में चुभान से वेदना नहीं होती । इसका कारण यही है कि शरीर में प्रात्मा है, शरीर के बाहर आत्मा नहीं है। इसी प्रकार श्रात्मा अणु के बराबर भी नहीं है, क्योंकि समस्त शरीर में अात्मा के गुण उपलब्ध होते हैं । अगर आत्मा अणु के बराबर हो तो वह शरीर के किसी एक ही भाग में मौजूद रहेगा सब जगह नहीं और ऐसी स्थिति में सुख-दुःख की प्रतीति समस्त शरीर में नहीं हो सकती, अतएव प्रात्मा न व्यापक है, न अणु के बराबर है, किन्तु शरीर के बराबर है । जिस जीव का जितना बड़ा शरीर उसका आत्मा भी उतना ही बड़ा है। इसी प्रकार न श्रात्मा सर्वथा नित्य है न सर्वथा अनित्य-क्षणिक ही है। सर्वथा नित्य मानने से श्रात्मा सदा एक ही रूप रहेगा। जो सुखी है वह पाप कर्म का प्राचरण करने पर भी सुखी ही बना रहेगा और जो दुःखी है वह धर्माचरण करने पर भी दुःखी बना रहेगा। फिर संसार के प्राणी मात्र में दुःख से मुक्त होने की जो सतत् . चेष्टा देखी जाती है वह निष्फल हो जाएगी और धर्म शास्त्रों के विधि-विधान वृथा हो जाएँगे। . आत्मा को क्षणिक मान लेने से लोक-व्यवहार समाप्त हो जाएंगे। प्रात्मा सिर्फ एक क्षण भर रह कर, दूसरे क्षण में ही नष्ट हो जाता है तो उसके किये हुए शुभअशुभ कर्मों का फल कौन भोगेगा? संसारी प्रात्मा क्षण विनम्बर होने से मुक्ति की
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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