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________________ पन्द्रहवाँ अध्याय [ ५३ ] हुए हैं। इस तरह कर्मों के फल का, आसव एवं बन्ध आदि के फलों का चिन्तन करने में चित्तवृत्ति रोकना अपायविचय धर्मध्यान है । अथवा हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह आदि पापों के इस लोक में और परलोक में होने वाले दुर्विपाक का विचार करने में मन लगाना, आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान आदि से उत्पन्न होने वाले कुफल का चिन्तन करना अपायविचय है । (घ) संस्थानविचयं धर्मध्यान-संस्थान शब्द का अर्थ है श्राकृति | विचय का अर्थ है - विवेक या विचार करना । तात्पर्य यह है कि धर्मास्तिकाय, श्रधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का, उनकी पर्यायों का, जीव के आकार का, लोक के स्वरूप का, पृथ्वी, द्वीप, सागर, देवलोक, नरकलोक के आकार का, त्रस नाड़ी के आकार का चिन्तन करने में चित्त लगाना संस्थानविचय धर्मध्यान है ।. जीव और कर्म के संयोग से उत्पन्न होने वाले जन्म, जरा, मरण रूपी जल से परिपूर्ण, क्रोध आदि कषाय रूप तल वाले, भांति-भांति के दुःख रूप मगरमच्छों से. व्याप्त, अज्ञान रूपी वायु से उठने वाली संयोग-वियोग रूप लहरों से युक्त इस अनादिअनन्त संसार - समुद्र का विचार करना । तथा संसार-समुद्र से पार उतारने वाली, सम्यक्दर्शन रूपी सुदृढ़ बंधनों वाली, ज्ञान रूपी नाविक द्वारा संचालित, चारित्र रूपी नौका है । संवर से निश्छिद्र, तपस्या रूप पवन वेग के समान शीघ्रगामी, वैराग्य मार्ग पर चलने वाली, अपध्यान रूपी तरंगों से न डिगने वाली बहुमूल्य शील-रत्न से परिपूर्ण नौका पर चढ़ कर मुनि रूपी यात्री शीघ्र ही, बिना किसी विघ्न-बाधा के निर्वाण रूप नगर को पहुंच जाते हैं। लोकाकाश के सर्वोच्च प्रदेश सिद्ध शिला को प्राप्त करके अक्षय, श्रव्याबाध, स्वाभाविक और अनुपम श्रानन्द के स्वामी बनते हैं । इस प्रकार का विचार करना । 1 संस्थानविचय में चौदह राजू लोक का या उसके किसी एक भाग का या उस सम्बन्धी विषय का प्रधान रूप से चिन्तन किया जाता है । शास्त्र में धर्मध्यान के चार लिंग निरूपण किये गये हैं- ( १ ) श्राज्ञा रुचि (२) तिसर्ग रुचि ( ३ ) सूत्र रुचि और ( ४ ) श्रवगाढ रुचि ( उपदेश रुचि ) । (क) श्राज्ञा रुचि -सूत्र में गणधरों द्वारा प्रतिपादित अर्थ पर रुचि धारण करना श्राज्ञा रुचि है । (ख) निसर्ग मचि - बिना किसी के उपदेश के, स्वभाव से ही जिन भाषित तत्वों पर श्रद्धान होना निसर्ग रुचि है । (ग) सूत्रं रुचि - सूत्र अर्थात् श्रागम द्वारा वीतराग प्ररूपित द्रव्य और पर्याय आदि पर श्रद्धा करना सून रुचि है । (घ) श्रवगाढ़ रुचि - द्वादशांग का विस्तारपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने से जिनोक्ल सत्त्वों पर जो श्रद्धा होती है वह अवगाद् रुचि कहलाती है । अथवा साधु के संसर्ग में रहने वाले पुरुष को साधु के सूत्रानुसारी उपदेश से होने वाली श्रद्धा अवगाद
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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