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________________ चन्द्रहवां अध्याय [ ५५१ ) श्राज्ञाविचय नामक धर्म ध्यान कहलाता है। अथवा हे जीव ! जगद्वन्धु, जगस्पिता, परम करुणाकर जिन भगवान् ने श्रारंभ. परिग्रह श्रादि को त्याज्य बतलाया है भगवान् ने हिंसा, सत्य आदि पापों को त्यागने की भाज्ञा दी है। फिर भी तू आरंभ-परिग्रह में पड़ा है और पापों से निवृत्त नहीं होता! तुझे अपने परम कल्याण के लिए भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलना चाहिए । इस प्रकार विचार करना प्राशावित्रय धर्मध्यान है। (ख ) अपायविचय धर्मध्यान-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग्ठ से होने वाले श्रास्त्रव से इस लोक और परलोक में होने वाले कुफल का विचार करना । जैसे 'भयंकर बीमारी में श्रन्न की इच्छा करना हानिकारक है। उसी प्रकार राग-द्वेष आदि जाव को भव-भव में हानिकारक हैं। जैसे अग्नि से ईधन भस्म हो जाता है उसी प्रकार द्वेष के कारण श्रात्मा के समस्त सद्गुण नष्ट हो जाते हैं और उसे घोर संताप होता है। राग-द्वेष के जाल में फंसा हुआ जीव न इस लोक में चैन . पाता है और न परलोक में सुगति का पात्र होता है। संग और द्वेष पर विजय प्राप्त न की जाय और उन्हें बढ्ने दिया जाय तो संसार की परम्परा बढ़ती है। मिथ्यात्व से जिस की मति मूढ़ हो रही है ऐसा पापी जीव इस लोक में भी अयंकर दुःख का पात्र होता है और परलोक में नरक श्रादि के कष्ट पाता है। हिंसा. असत्य, चोरी आदि पापों में प्रवृती करने वाला पातकी पुरुष इसी लोक में शिष्ट पुरुषों द्वारा निन्दनीय होता है, अविश्वास का भाजन होता है, व्याकुले रहता है, शंकितचित्त रहने के कारण अशान्त-चित्त रहता है, राजा के द्वारा दंड का पात्र होता है । परलोक में भी उसकी घोर दुर्गति होती है। ___ प्रमाद के कारण जाव कर्तव्य कर्म में प्रवृत्ति नहीं करता, अकर्त्तव्य कर्मों में प्रवृत्त होता है, अतएव प्रमाद मनुष्य का भयानक शत्रु है । वह भनेक प्रकार के कष्टों का जनक है । महापुरुषों ने उसे त्याप्य बतलाया है। अनन्त शक्ति से सरूपन्न श्रात्मा, अनन्त सुख का अनुपम धाम होने पर भी श्रास्रव के ही कारण घोर दुःख सहन करता है । मानव ही भव भ्रमण का कारण है। श्रास्रव से उपार्जित कर्मों का फल भोगने के लिए प्रात्मा को नाना गतियों के दुःख सहन करने पड़ते हैं। पासव की सरिता में चेतना के स्वाभाविक गुण वह जाते हैं। ___ कायिकी श्रादि क्रियाओं में वर्तमान जीव भी इस लोक एवं परलोक में अनेक प्रकार की वेदनाएँ भोगते हैं। जिन मगवान् द्वारा निरुपित पच्चीस क्रियाएं संसार को बढ़ाने वाली, और दुःख को बढ़ाने वाली हैं। इस प्रकार चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान कहलाता है। अथवा करु. यापरायण अन्तःकरण से जगत् के जीवों के अपाय का चिन्तन करना अपायविचय
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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