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________________ पन्द्रहवां अध्याय छाया:- मनः साहसिकं भीमं दुष्टाश्वः परिधावति । तत् सम्यक तु निगृहणामि, धर्म शिक्षाभिः कन्थकम् ॥ २ ॥ [ ५४५ ] शब्दार्थ::- मन बड़ा साहसी और भयंकर है । वह दुष्ट घोड़े की तरह इधर-उधर दौड़ता रहता है । धर्म शिक्षा से, उत्तम जाति के अश्व के समान उसका मैं निग्रह करता हूं । भाष्यः- - पूर्व गाथा में मनो- निग्रह का महत्व बतलाने के बाद यहां उसके निग्रह की कठिनाई का प्रतिपादन किया गया है । मनोनिग्रह में कठिनता यह है कि मन अत्यन्त साहसी और भयंकर है, साथ ही वह दुष्ट घोड़े की तरह लगाम की परवाह न करके इधर से उधर भटकता फिरता है । हित-अहित की अपेक्षा न करके प्रवृत्ति करने वाला साहसी कहलाता है । मन उचित और अनुचित का विवेक किये विना ही प्रवृत्ति करता है । जो लोग सदा अपने मन की गति - विधि का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करने में सावधान होते हैं और कुमार्ग की और जाते ही उसे रोक लेते हैं, उन्हें भी कभी-कभी मन धोखा दे देता है। जो योगी उसे श्रात्मा में लीन रखने के लिए ध्यान आदि का अनुष्ठान करते हैं, उनका मन भी कभी उच्छृंखल बन जाता है और अनिष्ट विषयों की और चला जाता है । अनेक पुरुष मन की स्थिरता के लिए अरण्यवास अंगीकार करते हैं, मगर मन उन्हें राज प्रासादमें लेजाता है अनेक त्यागी संसारसे विरक्त होकर कायक्लेश करते हैं, पर मन भोगों में डूब कर उनके कायक्लेश को व्यर्थ बना देता है । न जाने कितने कटक शय्या पर सोने वालों का मन दौड़कर सुखमयी सेज पर पौढ़ जाता है। साधक पुरुष मन को अपनी ओर खींचता है और मन उसे अपनी और खींचता है। साधक पुरुष साम्यभाव के सुधा-सलिल से आत्मा को स्वच्छ बनाने में निरत होता है, तब मन उसके काबू से बाहर होकर राग-द्वेष के मैल द्वारा आत्मा को मलिन बना डालता है । मनुष्य कितनी ही बार अनाचार से ऊब कर उसे त्याग देने, का संकल्प करता है मगर मन नहीं मानता और उसे फिर अनाचार के कीचड़ में फंसा देता है । अपने कर्मों के क्षय के लिए प्रयत्न करने वाले और भोगों का सर्वथा त्याग कर देने वाले त्यागी पुरुष को मन कभी अतीतकाल में मुक्त भोगोंका स्मरण कराता है और कभी स्वर्ग के भोगोपभोगों की कामना उत्पन्न करके उसके तप-त्यांग को मिट्टी में मिला देता है 1 मन अत्यन्त धृष्ट है । एक बार उसका निग्रह कर लेने पर भी वह थकता नहीं । आत्मा से बाहर निकलने के उसने अनेक मार्ग बना रखे हैं । जब कोई पुरुष एक मार्ग बंद कर देता है तो वह दूसरे मार्ग से बाहर निकल भागता है । मन में विचित्र मोहनी शक्ति है । जो मनुष्य उसे नियंत्रण में रखना चाहते हैं, उन्हें भी वह मोहित कर लेता है । ऐसी स्थिति में जो लोग मन की ओर से सर्वथा लापरवाह है, मन को अपने अधीन न रखकर स्वयं मन के अधीन होकर रहना
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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