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________________ पन्द्रहवां अध्याय विषय में राग द्वेष धारण नहीं करते। ' इस प्रकार जो महापुरुष मन को जीत लेता है, मन को इष्ट-प्रनिष्ट विषय की कल्पना करने से रोक देता है, वह इन्द्रियों को भी जीत लेता है। हली अभिप्राय से शास्त्रकार ने कहा है-एगे जिए जिया पंच।' अर्थात् एक मन पर नियंत्रण कर लेने पर पांच अर्थात पांच इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है। पांच इन्द्रियों को जीत लेने पर दल पर अर्थात् मन, पांच इन्द्रियों और क्रोध . मान, माया एवं लोभ रूप चार कषायों पर विजय प्राप्त होती है। कषायों का मूल भी मन है। जब मन काबू में आ जाता है तो राग और द्वेष रूप चार कषायें भी काबू में आजाती हैं। ऊपर के विवेचन से यह विषय स्पष्ट है। . जो महात्मा कषायों पर विजय प्राप्त कर लेता है उसके चित्त की चिर-कालीन असमाधि सहसा विलीन हो जाती है। वह समताभाव के परम रम्य सरोवर में अवगाहन करके लोकोत्तर शान्ति का प्रास्वादन करता है । इस सरोवर में अवगाहन करते ही चिर संचित मलीनता धुल जाती है। कहते हैं,आधे क्षण भी जो पूर्ण समता- . आंव का अवलम्बन करता है, उसके इतने कर्मों की निर्जरा हो जाती है जितने कर्म . करोडो वर्षों तक तपस्या करने वालों के भी निर्जीर्ण नहीं होते। समताभव का. परम : प्रकाश जहां प्रकाशमान होता है वहां राग द्वेष का प्रवेश नहीं होने पाता । अतएव समताभाव प्राप्त करने के लिए चार कषायों को जीतना परमावश्यक है । कषाय-जय के लिए शास्त्रकार ने कहा है उवलमेण हणे कोहं, माणं मदवया जिणे । मायमजवभावेणं, लोहं संतोष श्री जिणे ॥ अर्थात् क्षमा भाव का आश्रय लेकर क्रोध पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, मृदुता (विनय ) का अवलम्वन करके सान को जीतना चाहिए श्राव (सरलता) 'धारण करके माया को हटाना चाहिए और सन्तोष धारण करके लोभ का नाश करना चाहिए। इस प्रकार विरोधी गुणों की प्रबलता होने पर कयायों सन्त आसा है। कषाय आत्मा का भयंकर शत्रु है । वह संसार को बढ़ाने वाला, दुर्गति में ले जाने वाला और श्रात्मा को अपने स्वरूप से च्युत करने वाला है । च्यारहवें गुणस्थान तक पहुंचे हुए मुनि की आत्मा में उत्पन्न होकर कषाय ही उनके अधःपतन का कारण होता है । कषाय के सद्भाव में सम्यक्-चारिज की पूर्णता नहीं हो पाती। अनन्तानुबंधी कषाय तो सम्यक्त्व को भी उत्पन्न नहीं होने देता। इस प्रकार कपाय के कारण प्रात्मा को अत्यन्त कष्ट उठाना पड़ता है । अतएव मन और इन्द्रियों को जीत कर 'कषायों को जीतने का प्रयत्न करना चाहिए। . . . . मन को, पांच इन्द्रियों को और चार कपायों को जीतने का माहात्म्य बतलाते झुए शास्त्रकार अन्त में कहते हैं-'दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तु जिणाम। अर्थात् मन श्रादि दस को जीत लिया जाय तो समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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